Saturday 31 October 2015

ग़ज़ल- लाश पर करने सियासत


लाश पर करने सियासत कुछ सयाने आ गए।
आदमीयत वो हमे देखो सिखाने आ गए।।

झोपड़े की आग में मासूम जल कर राख थे।
ओढ़ कर खादी सभी फोटो खिचाने आ गए।।

नज़्म की ख़ातिर बिठाया आपको सर आँख पर।
मान लौटा के न जाने क्या जताने आ गए।।

मन्दिरों औ मस्जिदों में ढूंढते हैं जो खुदा।
मजहबों के नाम पर वो घर जलाने आ गए।।

हाथ जोड़े बाँध भोंपू बेचकर ईमान को।
पांच सालों का वही जलसा मनाने आ गए।।

                         -डॉ पवन मिश्र

Thursday 29 October 2015

दुर्मिल सवैया- हर बात खरी कहिये सबसे


हर बात खरी कहिये सबसे,
मन की गठरी हलकी रखिये।

सुख हो दुख हो क्षण भंगुर हैं,
हर प्रात यही जपते रहिये।।

सब आतुर हैं धन वैभव को,
यह भंगुर है खुद से कहिये।।

भव सागर से तरना गर हो,
हरि नाम जपा करते रहिये।।

                 - डॉ पवन मिश्र

दुर्मिल सवैया छंद- आठ सगण अर्थात् 112×8 मात्रा युक्त सममात्रिक छन्द

Saturday 24 October 2015

ग़ज़ल- हालात मुनासिब हो जायें


हालात मुनासिब हो जायें।
गर उनसे मिलने को जायें।।

जानो पे रख लो सर मेरा।
इक रात चैन से सो जायें।।

बस यही इल्तिज़ा है मेरी।
चाहत में उसके खो जायें।।

ख़ामोश ख़ियाबां लगता है।
कुछ तो जाज़िब गुल बो जायें।।

ऐ खुदा मिले उनको जन्नत।
सजदे में तेरे जो जायें।

        -डॉ पवन मिश्र

जानो= गोद, इल्तिज़ा= निवेदन, खियाबां= बाग़, जाज़िब= आकर्षक, गुल= फूल

Wednesday 21 October 2015

हे प्रिये सुनो अब आन मिलो

                 ~मत्त सवैया छन्द~

हे प्रिये सुनो अब आन मिलो, रैना न बितायी जाती है।
मन आकुल है तन व्याकुल है, नयनो को नींद न भाती है।।

आकाश बना कर यादों का, मन का खग विचरण करता है।
इस ओर कभी उस ओर कभी, यह मारा मारा फिरता है।।

तुम आओगे कब आओगे, अपलक नयनों से ताक रहे।
शोर बढ़ा है धड़कन का पर, हर आहट पे हम झांक रहे।।

निष्ठुर जग के आघातों पर, थोड़ा सा मरहम धर जाओ।
मन की वीणा के तारों को, थोड़ा सा झंकृत कर जाओ।।

                                        -डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 16,16 मात्राओं पर यति तथा पदांत में गुरु की अनिवार्यता।

Saturday 17 October 2015

ग़ज़ल- बेतुकी बात है तो असर क्या करे


बेतुकी बात है तो असर क्या करे।
देखना ही न हो तो नज़र क्या करे।।

लाख मिन्नत पे भी गर परिन्दे उड़े।
छोड़ के घोसलें तो शज़र क्या करे।।

चन्द कदमों में ही देख के मुश्किलें।
लड़खड़ा वो गए तो डगर क्या करे।।

जाना था साथ उनके बहुत दूर तक।
हाथ वो छोड़ दें तो सफ़र क्या करे।।

जिनसे अम्नो वफ़ा की रिवायत बनी।
लेके पत्थर खड़े तो शहर क्या करे।।

रंजिशें दिल में हाथों में खंज़र लिए।
रात बैरन बनी तो सहर क्या करे।।

                   -डॉ पवन मिश्र

शज़र=पेड़, रिवायत= रीति-रिवाज, सहर= सुबह

Tuesday 13 October 2015

ग़ज़ल- संगदिल को छुआ तो पिघलने लगे


संगदिल को छुआ तो पिघलने लगे
रफ्ता रफ्ता तो वो भी मचलने लगे।।

जान के हमको ये कुछ तसल्ली हुई।
ठोकरें खा वो खुद ही सँभलने लगे।।

गांव की वीथियां हो गई मौन क्यूँ।
छोड़ कर सब शहर को ही चलने लगे।

जिनके दामन पे छीटें सियाही के है।
सर पे टोपी पहन के निकलने लगे।।

अब किसी की शिकायत करे क्या पवन।
लोग कपड़ों के जैसे बदलने लगे।।

                 -डॉ पवन मिश्र

संगदिल= पत्थर दिल, वीथियां= गलियां

Saturday 10 October 2015

ग़ज़ल- तुझे ही याद रखने की


तुझे ही याद रखने की मुसीबत जानकर पाली।
कभी तू भी ज़रा तो देख मेरी आँख की लाली।।

यहाँ के रहनुमा अब चाहते शागिर्द ऐसे हों।
समझ में कुछ न आये पर बजा दे हाथ से ताली।

न जाने किसने घोला है फ़िज़ाओं में ज़हर इतना।
सभी के हाथ में खंजर जुबां पे है धरी गाली।।

गरीबों की रसोई का रहे अक्सर यही आलम।
कभी हैं लकड़ियां गीली कभी भण्डार है खाली।

पवन को ऐ मेरे मौला फ़क़त ये ही अता करना।
न तपते दिन यहां पे हों न रातें हो कभी काली।।


                                      -डॉ पवन मिश्र