Thursday 31 December 2015

पञ्चचामर छन्द- नवीन वर्ष


निशा कहीं चली गयी नया प्रभात छा गया।
प्रकाश पुंज जो खिला नवीन वर्ष आ गया।।
सुनो नवीन वर्ष में सदा यही प्रयास हो।
सप्रेम ही मिले सभी मनुष्य का विकास हो।१।

न द्वेष हो न राग हो न हो कहीं मलीनता।
धरा खिले बहार से सदा रहे नवीनता।।
करो सभी विचार ये ध्वजा कभी झुके नहीं।
बढ़े चलो मिले चलो कि देश ना रुके कहीं।२।

                                 -डॉ पवन मिश्र





सार छन्द/ छन्न पकैया- सर्द गर्म मौसम


छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम करवट लेता।
कभी सर्द तो कभी गर्म है, जैसे कोई नेता।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम है अनजाना।
इस सर्द गरम में सम्भव है, खाँसी का लग जाना।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम सब पर भारी।
कभी ठण्ड तो कभी गरम से, व्याकुल हैं नर नारी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, कैसा मौसम फेरा।
दिन में रवि का ताप चढ़े है, फिर हो शीतल डेरा।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, ये कैसी है सर्दी ।
पूष मास में भी ना निकली, मोटी वाली वर्दी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, क्यूँ ना सर्दी आती।
हिम गिरने की बेला में क्यूँ, रंगत धूप दिखाती।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, तय कर लो अब प्रभु जी।
दूर करो ये लुका छिपी अब, मानो मेरी अरजी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मानो प्रभु हैं कहते।
पेड़ काट डाले है तुमने, जिनसे मौसम रहते।।

                              - डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 16,12 मात्राओं पर यति तथा चरणान्तक २२ या २११ या ११२ या ११११ से होना चाहिए।

Sunday 27 December 2015

ग़ज़ल- ज़रा सी इक झलक दिखला


ज़रा सी इक झलक दिखला चले जाते कहाँ यारो।
हमे भी ले चलो इक बार जाते हो जहाँ यारो।।

बड़ी वीरान दुनिया है बिना उन कहकहों के अब।
मिले थोड़ी सी फ़ुर्सत तो चले आओ यहाँ यारों।।

फ़टे पन्ने किताबों के वो बेतरतीब से बिस्तर।
बुलाता है हमे बचपन चलो फिर से वहाँ यारों।।

शिकायत थी हज़ारों दिल में, सोचा भी कहेंगे सब।
हुआ दीदार जब उनका बने हम बे दहाँ यारों।।

रवायत का पवन शायर, छुपा कर दर्द लिखता है।
अगर तुम देख पाओ ये मेरे हर्फ़े निहाँ यारो।।

                              -डॉ पवन मिश्र

बे दहाँ= बिना मुंह का (बेजुबां)
रवायत= परम्परागत
हर्फ़े निहाँ = छुपे हुए शब्द

Saturday 26 December 2015

चौपाई- प्रात भई खग चहकन लागे


प्रात भई खग चहकन लागे,
घर आँगन भी महकन लागे।।
निशा गयी फैला उजियारा,
कुसुमालय सा है जग सारा।।

शीतल मन्द पवन भी आयी,
हर बगिया हरियाली छायी।
ईश विनय में शीश झुकाऊँ,
कृपा दृष्टि आजीवन पाऊँ।।

गुरु चरणों में वन्दन अर्पित,
क्या मैं दूँ सर्वस्व समर्पित।
मात-पिता का प्रभु सम आदर,
जीवन अर्पण उनको सादर।।

यह मिट्टी तो जैसे चन्दन,
देश-प्रेम से महके तन मन।
इसकी ख़ातिर बलि बलि जाऊँ,
जन्म पुनः भारत में पाऊँ।।

              -डॉ पवन मिश्र


Monday 21 December 2015

मुरलीधर अधरन पे


मुरली धर अधरन पर, लो मुरलीधर आये।
नाग नथैया बृज के, कान्हा मन हरसाये।१।

श्याम रंग अति शोभित, छवि मनमोहक साजे।
पुष्प गिरे अम्बर से, ढम ढम ढ़ोलक बाजे।२।

नयन रेख काजल की, मन्द हँसी मन मोहे।
ग्वाल बाल सब संगे, तन पीताम्बर सोहे।३।

बलदाऊ के भ्राता, गोवर्धन के धारी।
हाथ जोरि नत माथा, पूजें सब नर नारी।४।

                          -डॉ पवन मिश्र



Sunday 20 December 2015

ग़ज़ल- बीए जबते पास किये हौ


बीए जबते पास किये हौ।
गरे मा हमरे फांस किये हौ।।

अत्ता भत्ता कछु नई मिलिहे।
फर्जी मा तुम आस किये हौ।।

तुमका कित्ता हम समझाइन।
फिरौ हमाये बांस किये हौ।।

हम जानित सब हिस्ट्री तुमरी।
काहे तुम बकवास किये हौ।।

फाड़ बतीसी देखि रहे जो।
अपने का परिहास किये हौ।।

कौड़ी कौड़ी बप्पा जोड़िन।
तुम पंचे सब नास किये हौ।।

               -डॉ पवन मिश्र

Thursday 17 December 2015

ग़ज़ल- दफ़्न जज्बातों को


दफ़्न जज्बातों को बस थोड़ी हवाएं चाहिए।
सँगदिलों की भीड़ से थोड़ी वफाएं चाहिए।।

साजिशों का दौर जारी मुल्क में मेरे अभी।
साजिशें वो ख़ाक हों ऐसी दुआएं चाहिए।।

बुत बना है आदमी उसकी जमी है नब्ज़ भी।
रक्त जिनमें खौलता हो वो शिराएं चाहिए।।

दूसरों के घर जला जो सेकता है रोटियाँ।
उस सियासतदार की ख़ातिर चिताएं चाहिए।।

हस्तिनापुर सा नहीं संसद हमें मंजूर है।
द्रौपदी का मान हो ऐसी सभाएं चाहिए।।

तेज लहरें तोड़ दे तो वो भला पत्थर कहाँ।
रोक ले जो धार को ऐसी शिलाएं चाहिए।।

                                -डॉ पवन मिश्र








Tuesday 15 December 2015

दुर्मिल सवैया- सुन कृष्ण पुकार यही तुमसे


सुन कृष्ण पुकार यही तुमसे।
इस जीवन के सब कष्ट हरो।।

पथ सूझ रहा न किसी जन को।
मन में सबके उजियार भरो।।

मति ह्रास भई जग में सबकी।
भव सागर से तुम पार करो।।

कर जोरि करूँ विनती तुमसे।
वसुदेव सुनो अब आन परो।।

              -डॉ पवन मिश्र

मुक्तक


वो मेरी है मैं उसका हूँ यही एहसास है दिल में।
वो हरपल साथ हो मेरे यही इक आस है दिल में।।
अभी हैं बंदिशे तुम पर जमाने के रिवाज़ों की।
क्षितिज के पार मिलना है यही विश्वास है दिल में।।

न तो तन्हाइयां डसती न ही अँगड़ाइयां रोती।
कभी आलम न ये आता अगर तुम पास में होती।।
सिमट जाता तेरे आगोश में लेकर मैं सारे गम।
मिटा के सारे गम मेरे नई खुशियों को तुम बोती।।

मैं तुमको याद करने के बहाने ढूँढ लेता हूँ।
पुराने एलबम को ही मैं अक्सर चूम लेता हूँ।।
गुजरता है शहर का डाकिया मेरी गली से जब ।
कोई पूछे या न पूछे मैं उसको पूछ लेता हूँ।।

मेरे जीवन की बगिया में फूलों सा महकना तुम।
घटा घनघोर जब छाये तो बिजुरी सा चमकना तुम।।
यही है कामना तुमसे मेरे प्रियतम मेरे हमदम।
मैं वँशी कृष्ण की लाऊँ तो राधा सा मचलना तुम।।

                                  -डॉ पवन मिश्र

Saturday 12 December 2015

ग़ज़ल- मेरे दिल में तुम हो


मेरे दिल में तुम हो बताऊँ मैं कैसे।
बहुत कोशिशें की जताऊँ मैं कैसे।।

महकने लगे हैं तेरी इक छुवन से।
निशां उँगलियों के मिटाऊँ मैं कैसे।।

कोई पूछता तो ज़ुबाँ कुछ न कहती।
निगाहें जो बोले छुपाऊँ मैं कैसे।।

घने बादलों में छुपा चाँद मेरा।
जुदाई का ये गम उठाऊँ मैं कैसे।।

खता क्‍या हुई हमसे रूठे हुए है।
खुदा ही बताये मनाऊँ मैं कैसे।।

घुले हो रगों में मेरी सांस जैसे।
अगर चाहूँ भी तो भुलाऊँ मैं कैसे।।

                    -डॉ पवन मिश्र

Friday 11 December 2015

दुर्मिल सवैया- तुम जान सको यदि मान सको


तुम जान सको यदि मान सको।
अभिमान व्यथा सब व्यर्थ प्रिये।।

इक मन्त्र सुनो इस जीवन का।
दुःख को सुख को सम मान प्रिये।।

सब की सुनना मति से करना।
यह भान सदा रखना तु प्रिये।।

जग की यह रीति पुरातन है।
दुख रूदन को अब त्याग प्रिये।।

              -डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 112 मात्राओं की आठ आवृत्ति

Wednesday 9 December 2015

अतुकान्त- मेरी डायरी

मेरी डायरी
मेरे एकांत की सहचरी
करती है मौन समर्पण
स्वयं का
जब मैं होता हूँ
अकेला
आत्मसात करती है
मेरी भावनायें
मेरे शब्द
बिना उफ़ तक किये
सहती है
मेरे विचारों की उग्रता
शब्दों की ऊष्मा
समझती है
उस प्रेम को
जो है प्रतीक्षारत
आज भी
पहचानती है
मेरी पिपासा
मेरी जिज्ञासा
देती है स्थान
मेरी करुणा को
वेदना को
क्रोधित नहीं होती
जब खीझकर
निष्ठुरता से
फाड़ देता हूँ
पन्ने उसके
तब भी नहीं
जब सालों तक
जीवन की आपाधापी
के फलस्वरुप
रख छोड़ा था उसे
रद्दी की टोकरी में
असहाय सी
घर के एक
अँधेरे कोने में
लेकिन
आज भी
मेरे हृदय स्पंद से
सहसा पलट जाते हैं
उसके पन्ने
आज भी उन
पीले पन्नों में
सुरक्षित हैं
मेरे शब्द
मेरी कविता
तुम्हारी यादें
और कुछ
सूखे हुए फूल

 -डॉ पवन मिश्र

Sunday 6 December 2015

कहानी- हुज्जती दद्दू


गली के मोड़ पर ही वो जमीन पे दो टोकरियां रख सब्जी लगाता था। एक अजीब सा समाजवाद था उन टोकरियों में जिसमें अमीरों की थाली के टमाटर, गोभी गरीबों के साग संग दिखते थे। काश्मीर पर भारत पाक सम्बन्धों की बानगी सी रखने की जगह को लेकर रोज रोज की मुन्ना संग उसकी झिक-झिक, पैसे न कम करने को लेकर ग्राहकों से खिट-पिट के बाद चलते चलते आवारा घूमती गाय को कुछ साग खिला जाना उसकी शामचर्या में शामिल था।
नाम तो पता नहीं लेकिन सब दद्दू बुलाते थे। रोज की इस पुनरावृत्ति के बारे मैंने एक दफ़ा पूछा, समझाना भी चाहा दद्दू थोड़ा धीरज धरा करो, मीठा मीठा बोला करो। पुण्य मिलने का रामबाणी लालच भी दिया। फिर क्या था दद्दू गुस्से से ऐसे लालटेन हुए जैसे ओसामा से ओबामा। बोले "लला खटोला तो हमही बिछाइबे हियन। दस सालें हुई गई हैं हमें। औ तुम जे मुन्ना से कहि देओ हमसे ज्यादा बकैती न करे।रंगबाजी काहू की नई देखत हम। बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है और ई सरमा जी का लागत है कि हम फोकट मा दई दे सब्जी इनका। और हमरे पुन्य के काजे तुम न फटो भगवान देखिहें सब।" और न जाने कौन कौन सी बड़बड़। जो न तो मैंने पूछी और न ही जिनसे मुझे सरोकार था। फिर गाय को साग खिला वो अपने रस्ते हम अपने घर।
 आज अचानक मण्डी में दिख गए दद्दू। फिर उसी हुज्जती अंदाज मे। एक आढ़ती से अपनी टोकरी पार्टी के लिये उचित मूल्य पर समाजवादी प्रत्याशी की चाह में उलझे थे। "जे लुबिया सही लगाये देओ तो कदुवा भी ले लेबे और तुरई भी। तुम पंचन का बस चले तो जेब हियनही उल्टी कराय लेओ। तनिक गरीबन का भी जीये देओ। बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है और पैसा ही कि खुद मा आग लगाये है।" आढ़ती ने जैसे तैसे दे-दवाकर पिंड छुड़ाया। फिर वही रिपीट सीन रिक्शे वाले के संग। लेकिन रिक्शा वाला भी दद्दू सा निकला, टस से मस न हुआ बोला "30 की औकात हो तो बोरा लादो और बइठो नहीं त हम चले झकरकट्टी तुम निकल ल्येओ पतरी गली से।" औकात शब्द सुनते ही दद्दू का पारा मंहगाई सा चढ़ा और चिल्लाये "ज्यादा बड़ी अम्मा न बनो। पता है हमे तुमाई औकात। बाप मरे अँधेरे में औ लऊंडा पावरहाउस। रोज तीन सौ पईंसठ देखित है तुमाई तरे। चलो कट लेओ हिअन से।" और बोरा पीठ पे लाद के चल दिए। न चाहते हुए भी बोरे के वज़न से मेरी जीभ दब गयी और बोल उठी " दद्दू तुम रिक्शा ले लेओ, मैं दिए दे रहा हूँ रुपिया।" लेकिन मेरे कहे का दद्दू पर वैसा ही असर हुआ जैसे जनता के कहे का नेता पर। वो न ठिठके न रुके। बस हनुमान चालीसा सरीखे अपनी चिर परिचित बकबक के सहारे चल पड़े।
जाने क्यों आज मैं भी रोमांटिक मूड में था। पीछे पीछे चल पड़ा और मौका ताड़ के दद्दू को फिर टोंका। दद्दू का हुई गा बड़ी रफ्तार मा हो। दद्दू बोले "आज जरा जल्दी मा है। बुढ़िया का लईके अबै डाग्डर के ढींगए जान है। कल्हे से बिटिया से बादा भी कीन है कि आज ऊका नया सलवार सूट ले देबे। ताही के चक्कर मा हुआंई से बजारौ निकरने है।आज तीरे पईसा भी है। ऊ आढ़ती से 20 बचे और 30 जे रेक्सा वाले, शाम की बिकरी ठीक भई तो 100 और चित। आज का काम तो पैंतिस। बस टेम नहीं है। लेट हुईगा तो ऊ चमगादड़ की औलाद मुन्ना से फिन से उलझे का पड़ी।" जाने क्यों ये सब बताते समय दद्दू इतने आत्मीय लग रहे थे जैसे चुनावी साल में नेता। दद्दू के उस 150 रूपये के अर्थशास्त्र ने मेरे जेब में रखे 500 के नोट को वैसे ही आईना दिखाया जैसे अक्सर डॉलर रूपये को। पीठ पे लदे बोझ और कदमो की रफ्तार में कोई सामंजस्य नहीं था।
पहली बार लगा कि बोरे में अगर सब्जियां होती तो दद्दू कब के थक कर बैठ गए होते या रिक्शे में होते। पीठ पर बेताल सरीखे लदे बोरे में भरी थी जिम्मेदारियां, उनकी बीमार बुढ़िया की दवा और जवान होती जा रही बिटिया के सलवार सूट। जो समान रूप से पीठ पे बोझ और कदमों को रफ़्तार दे रही थी। विज्ञान की भाषा में कहूँ तो बोझ और चाल दोनों ही डायरेक्टली प्रपोशनल से लग रहे थे। मैं एकटक देख रहा था दद्दू को और वो तेज कदमों से चलते ही जा रहे थे। कि अचानक मेरी एकाग्रता में खलल पड़ी। कानों ने सुनी किसी कार के ब्रेक्स की तीक्ष्ण चिचिआहट और आँखों ने देखा दद्दू सामने  सड़क पर। मैं दौड़ कर पहुंचा। आदत के विपरीत दद्दू खामोश थे। अचेत शरीर सड़क के एक किनारे पर था। सब्जियों का बोरा कुछ दूरी पर बिखरा पड़ा था। लोगों की तमाशबीन भीड़ दद्दू के शरीर को घेर रही थी। सब्जियों के करीब आवारा जानवर दद्दू की आत्मा को पुण्य दिलाने के प्रयास में संघर्षरत थे। कार वाला भी खिली धूप का चन्द्रमा बन चुका था। धीरे धीरे भीड़ भी छंट ही रही थी। दद्दू का पार्थिव शरीर था सामने। तब तक मुन्ना भागकर दद्दू की बुढ़िया और जवान बेटी को बुला लाया था। पहली बार पाया कि दद्दू के अगल बगल चिल्ल मंची थी और दद्दू शांत थे। या शायद उस समय यमराज से हुज़्ज़त कर रहे होंगे कि बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है औ तुम का जल्दी मची है हमे ले जान की।।।।।।।

डॉ पवन मिश्र

Saturday 5 December 2015

ग़ज़ल- गांव में जिनके मकां कच्चे लगे


गांव में जिनके मकां कच्चे लगे।
बात के हमको बहुत अच्छे लगे।।

रेत के अपने घरौंदों को लिए।
तिफ़्ल वो हमको बड़े सच्चे लगे।।

ज़िद पकड़ के रूठने की ये अदा।
आप तो दिल के हमें बच्चे लगे।।

देखने की जब तुझे चाहत हुई।
दीद में बस फूल के गुच्छे लगे।।

छत न जिनकी रोक पाती बारिशें।
वो उसूलों के बहुत पक्के लगे।।

                      -डॉ पवन मिश्र

तिफ़्ल= बच्चे,    दीद= देखना





Friday 4 December 2015

ग़ज़ल- सज सँवर के शाम वो


सज सँवर के शाम वो हमको रिझाने आ गए।
ज़ाम नज़रों के हमें देखो पिलाने आ गए।।

हुस्न उनका इस कदर हावी हुआ जज़्बात पर।
दिल हथेली पे लिए उनके निशाने आ गए।।

बेबसी की शाम अब ढलने को है कुछ देर में।
थक चुकी आँखों को वो सपने दिखाने आ गए।।

खुद की ख़ातिर जी रहे जो अब तलक संसार में।
इश्क की रस्में वही हमको सिखाने आ गए।।

थाम कर मजबूरियों को तुम गए थे छोड़कर।
हम वही हैं फिर वही रिश्ता निभाने आ गए।।

दूरियाँ मंजूर हैं रूस्वाइयां लेकिन नहीं।
जो मिला वो हारकर तुमको जिताने आ गए।।

                               -डॉ पवन मिश्र

Wednesday 2 December 2015

ग़ज़ल- अब मेरे दिल को उनसे अदावत नहीं


अब मेरे दिल को उनसे अदावत नहीं।
वो सितमगर है फिर भी शिकायत नहीं।।

ये अदा खूब है हुस्न वालों की भी।
वादा करके निभाने की आदत नही।।

आज आएंगे वो छत पे मिलने हमें।
चाँद की आज हमको जरूरत नहीं।।

कोई जाके बता दे उन्हें बात ये।
वो नहीं तो मेरे घर में बरकत नहीं।।

रेवड़ी बाँटने में ही मशगूल सब।
रहनुमाओं सुनों ये सियासत नहीं।।

बस्तियां जल गयी रोटियों के लिये।
उनके दिल में कहीं नेक-नीयत नहीं।।

ये सफ़र जीस्त का रायगाँ मत करो।
ये जवानी उमर भर  की नेमत नहीं।।

आँख मूंदें तो सर हो तेरी ज़ानो पे।
इससे ज्यादा पवन की तो हसरत नहीं।।

                          -डॉ पवन मिश्र
अदावत= शत्रुता,   जीस्त= जिंदगी,  
रायगाँ= व्यर्थ,    ज़ानो= गोद