Saturday 24 September 2016

ग़ज़ल- जो साँसे और मिल जाती

*1222  1222  1222 1222*

जो साँसे और मिल जाती तो सूरत और हो जाती।
समझ लेते क़ज़ा को फिर हकीकत और हो जाती।।

हुआ अच्छा कि मज़बूरी बयाँ कर दी हमें आकर।
नहीं तो इस जमाने से बगावत और हो जाती।।

नकाबों में छिपे थे तुम मगर चाहा बहुत हमने।
अगर खुल कर हमें मिलते मुहब्बत और हो जाती।।

सितमगर हाय बारिश ने बचाया ख़ाक बस्ती को।
न बुझती आग जो थोड़ी सियासत और हो जाती।।

जो खींचे कान गर होते समय पर बिगड़े बच्चों के।
बड़प्पन के नजरिये से हिदायत और हो जाती।।

मिला है साथ उनका तो न छूटे सात जन्मों तक।
पवन पर ऐ खुदा इतनी सी रहमत और हो जाती।

                                 ✍ डॉ पवन मिश्र
कज़ा= मृत्यु

ताटंक छन्द- बदलते शब्द


एक दौर जीवन का वो जब, 'क' से कबूतर होता था।
उड़ता था उन्मुक्त गगन में, नींद चैन की सोता था।।
'ख' से खाली जेब थी लेकिन, नित नव सपने बोता था।
'ग' के रँगे गुब्बारों खातिर, 'घ'ड़ी घड़ी मैं रोता था।१।

तितली ही प्यारी लगती थी, 'त'कली मन को भाती थी।
दिन भर होती भागा-दौड़ी, 'थ'कान नजर न आती थी।।
'द'ही जलेबी का लालच दे, अम्मा हमे बुलाती थी।
'ध'नुष-बाण, तलवार तराजू, मेले से वो लाती थी।२।

अद्भुत दिन थे बचपन के वो, याद हमेशा आते हैं।
वर्ण वही हैं माला के पर, शब्द बदलते जाते हैं।।
'क' मुंह फाड़े खड़ा सामने, काम काम चिल्लाता है।
'ख' कहता खुदगर्ज़ बनो और, लाखों 'ग'म दे जाता है।३।

लेकिन रिमझिम बूंदें अब भी, अंतर्मन छू जाती हैं।
यादों में कागज की नावें, हलचल खूब मचाती हैं।।
वही कबूतर, तकली, तितली, सपने में ललचाते हैं।
बचपन की गलियों में फिर से, हमको रोज बुलाते हैं।४।


                                     ✍डॉ पवन मिश्र

कुण्डलिया- हिंदी

हिन्दी तो अनमोल है, मीठी सुगढ़ सुजान।
देवतुल्य पूजन करो, मात-पिता सम मान।।
मात-पिता सम मान, करो इसकी सब सेवा।
मिले मधुर परिणाम, कि जैसे फल औ मेवा।।
कहे पवन ये बात, सुहागन की ये बिन्दी।
इतराता साहित्य, अगर भाषा हो हिन्दी।१।

दुर्दिन जो हैं दिख रहे, इनके कारण कौन।
सबकी मति है हर गई, सब ठाढ़े हैं मौन।।
सब ठाढ़े हैं मौन, बांध हाथों को अपने।
चमत्कार की आस, देखते दिन में सपने।।
सुनो पवन की बात, प्रीत ना होती उर बिन।
होती सच्ची चाह, न आते इसके दुर्दिन।२।

सरकारी अनुदान में, हिन्दी को बइठाय।
अँग्रेजी प्लानिंग करें, ग्रोथ कहाँ से आय।।
ग्रोथ कहाँ से आय, ट्रबल में हिंदी अपनी।
मदर टन्ग असहाय, यही बस माला जपनी।।
कहे पवन कविराय, करें ये बस मक्कारी।
हिंदी कोसे भाग्य, देख फाइल सरकारी।३।

जब सोंचे हिन्दी सभी, हिन्दी में हो काम।
हिन्दी में ही बात हो, भली करेंगे राम।।
भली करेंगे राम, बढ़ेगी हिंदी तबही।
हिंदी में हर लेख, करो ये निश्चय अबही।।
हिंदी कोमल जीव, विदेशी मिल सब नोंचे।
होगी ये बलवान, सभी मिलकर जब सोंचे।४।

                                  ✍डॉ पवन मिश्र

Monday 19 September 2016

ताटंक छन्द- उरी हमले के संदर्भ में

*दिनांक 18/09/16 को हुए उरी हमले के संदर्भ में*
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नापाक इरादों को लेकर, श्वान घुसे फिर घाटी में।
रक्त लगा घुलने फिर देखो, केसर वाली माटी में ।।
सूनी फिर से कोख हुई है, माँ ने शावक खोये हैं।
चींख रही हैं बहिने फिर से, बच्चे फिर से रोये हैं।१।

सिसक रही है पूरी घाटी, दिल्ली में मंथन जारी।
प्रत्युत्तर में निंदा देते, क्यूँ है इतनी लाचारी।।
अंदर से हम मरे हुए हैं, पर बाहर से जिन्दा हैं।
माफ़ करो हे भारत पुत्रों, आज बहुत शर्मिंदा हैं।२।

वो नापाक नहीं सुधरेंगे, कब ये दिल्ली मानेगी।
आर-पार का अंतिम निर्णय, कब ये दिल्ली ठानेगी।।
दिल काला है खूं है काला, कब कालों को जानेगी।
कुत्ते की दुम टेढ़ी रहती, सच ये कब पहचानेगी।३।

अबकी प्रश्न नहीं हैं उनसे, पूछ रहा हूं दिल्ली से।
कब तक शावक ही हारेंगे, कायर कुत्सित बिल्ली से।।
कैसे मोल चुकाओगे तुम, इन सत्रह बलिदानों का।
जंग लग रही तलवारों में, मुँह खोलो अब म्यानों का।४।

                                       ✍डॉ पवन मिश्र

Sunday 18 September 2016

तरही ग़ज़ल- सितारे रक़्स करते हैं


उन्हें देखें जो बेपर्दा सितारे रक़्स करते हैं।
नज़र जो उनकी पड़ जाए नज़ारे रक़्स करते हैं।।

तेरे पहलू में होने से शबे दैजूर भी रौशन।
बरसती चाँद से खुशियाँ सितारे रक़्स करते हैं।।

तुम्हे है इल्म मेरी जिंदगी कुछ भी नही तुम बिन।
इन्हीं वजहों से तो नख़रे तुम्हारे रक़्स करते हैं।।

कभी तो तुम ही आओगे शबे हिज़्रां मिटाने को ।
इसी उम्मीद से अरमां हमारे रक़्स करते हैं।।

जड़ों की कद्र तो केवल समझते हैं वही पत्ते।
शज़र की टहनियों के जो सहारे रक़्स करते हैं।।

उसी की जीत है यारों लड़े खामोश रहकर जो।
सफीने डूब जाते हैं किनारे रक़्स करते हैं।।*

करूं मैं शुक्रिया कैसे तेरे अहसान हैं कितने।
पवन के शेर भी तेरे सहारे रक़्स करते हैं।।

                                ✍ डॉ पवन मिश्र

* जनाब आफ़ताब अकबराबादी की ग़ज़ल का मिसरा

रक़्स= नृत्य, नाच
शबे दैजूर= अमावस की रात
इल्म= जानकारी
शबे हिज़्रां= विरह की रात
शज़र= पेड़
सफ़ीने= जहाज, जलपोत

Sunday 11 September 2016

चौपई- खाट पर चर्चा

अबकी गांव लगी चौपाल,
मत पूछो तुम उसका हाल।
कोशिश थी कि बने भौकाल,
लेकिन जमकर हुआ बवाल।१।

ये बातों के बब्बर शेर,
हवामहल सब इनके ढ़ेर।
हरदम करते केवल बात,
बातों में बीते दिन रात।२।

पी के भरने आया जोश,
फुर्र हुआ उसका भी होश।
वोटों की लगवाई हाट,
खान्ग्रेस की लुट गई खाट।३।

भीड़ न देखे आव न ताव,
बस बूझे खटिया का भाव।
ऐसी कस कर रेलमपेल,
हुइगा पप्पू फिर से फेल।४।

पप्पू भागा मम्मी पास,
बोला ये सब है बकवास।
राजनीति है कड़वी नीम,
दिखला दे बस छोटा भीम।५।

               ✍डॉ पवन मिश्र

Wednesday 7 September 2016

ग़ज़ल- चाहत को मेरी यूँ न सनम आजमाइये


चाहत को मेरी यूँ न सनम आजमाइये।
तन्हा बहुत है जीस्त ये अब आ भी जाइये।।

भरता नहीं है वक्त मेरे दिल के घाव भी।
नासूर बन रहा है ये मरहम लगाइये।।

दीदार को तरस रहीं आँखों की क्या ख़ता।
चिलमन की ओट से न इन्हें यूँ सताइये।।

बेताब हैं महकने को कलियाँ बहार की।
काँटों से पाक उनके ये दामन बचाइये।।

मदहोश करती है बहुत आवाज ये तेरी।
इक बार तो मेरी भी ग़ज़ल गुनगुनाइये।।

कब तक रहेंगे आप पवन से खफ़ा खफ़ा।
अब रात संग बात गई मान जाइये।।

                          ✍ डॉ पवन मिश्र

Sunday 4 September 2016

ग़ज़ल- छुआ उसने तो चंदन हो गया है


छुआ उसने तो चंदन हो गया है।
ये जीवन एक मधुबन हो गया है।।

बताऊँ क्या तुम्हे जबसे मिला वो।
मेरे सीने की धड़कन हो गया है*।।

मुसीबत के पहाड़ों से उलझ कर।
बड़ा पथरीला बचपन हो गया है।।

पुकारे अब किसे सीता बिचारी।
लखन भी आज रावन हो गया है।।

हज़ारों चूहे खाकर आज बिल्ला।
सुना है पाक़ दामन हो गया है।।

बड़े जबसे हुए हैं घर के बच्चे।
बहुत सँकरा सा आँगन हो गया है।।

सुनो मत आजमाना इस 'पवन' को।
तपा कर खुद को कुंदन हो गया है।।

                      ✍ डॉ पवन मिश्र

* आदरणीय समर कबीर साहब का मिसरा

Friday 2 September 2016

ग़ज़ल- इश्क़ की राहों में हैं रुसवाईयाँ


इश्क़ की राहों में हैं रुसवाईयाँ।
हैं खड़ी हर मोड़ पर तन्हाईयाँ।।

क्या करे तन्हा बशर फिर धूप में।
साथ उसके गर न हो परछाईयाँ।।

चाहता हूं डूबना आगोश में।
ऐ समंदर तू दिखा गहराईयाँ।।

दिल दिवाने का दुखा, किसको ख़बर ?
रात भर बजती रही शहनाईयाँ।।

तुम गये तो जिंदगी तारीक है।
हो गयी दुश्मन सी अब रानाईयाँ।।

दूर हो जाये जड़ों से ये 'पवन'।
ऐ खुदा इतनी न दे ऊँचाईयाँ।।

                 ✍ डॉ पवन मिश्र

बशर= आदमी
तारीक= अंधकारमय