Saturday 29 April 2017

ग़ज़ल- युँ दर्द अपना छुपा रहा था


युँ दर्द अपना छुपा रहा था।
हँसी लबों पे दिखा रहा था।।

छुपा के अश्कों की मोतियों को।
क्या हाल है क्या बता रहा था।।

वो जानता था हवा है बैरी।
*मगर दिये भी जला रहा था*।।

हमें दुआओं में करके शामिल।
वो इश्क़ हमसे निभा रहा था।।

चला गया जाने किस नगर में।
जो मेरी दुनिया बसा रहा था।।

मिटा दिया उसने खुद को लेकिन।
पवन को जीना सिखा रहा था।।

                      ✍ डॉ पवन मिश्र

Tuesday 18 April 2017

मदिरा सवैया छन्द- रूपवती सखि प्राणप्रिये


रूपवती सखि प्राणप्रिये,
निज रूप अनूप दिखाय रही।

ओंठन से छलका मदिरा,
हिय को हर बार रिझाय रही।

बैठि सरोवर तीर प्रिये,
बस नैनन बान चलाय रही।

नैन मिले जब नैनन से,
तब लाजन क्यूँ सकुचाय रही।

                 ✍ डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 7 भगण (२११×७)+१ गुरू, सामान्यतः 10,12 वर्णों पर यति।

Saturday 15 April 2017

ग़ज़ल- क्या करें (हास्य ग़ज़ल)

२१२२   २१२२   २१२२

उनके आगे हम हैं बेदम क्या करें ?
बचने के आसार हैं कम क्या करें ?

आज घर आने में देरी हो गयी।
देखिये अब हाल बेगम क्या करें ?

बाल सर के रफ़्ता रफ़्ता जा रहे।
*जाने वाली चीज़ का गम क्या करें ?

ताश के किस खेल में हम आ गए।
सारे पत्ते उनके ही हम क्या करें ?

चाँद तारे फूल खुशबू कुछ नहीं।
खौफ़ में है दिल का मौसम क्या करें ?

युद्ध से डरता नहीं है ये पवन।
पर घरैतिन न्यूक्लियर बम क्या करें ?

                           ✍ डॉ पवन मिश्र
* दाग देहलवी साहब का मिसरा

ग़ज़ल- क्या करें


इल्तिज़ा उस दर पे पैहम क्या करें ?
वो ही जब सुनता नहीं हम क्या करें ?

लेके क़श्ती आ गए मझधार तक।
इससे ज्यादा हौसला हम क्या करें ?

जो गया वो था मुक़द्दर में नहीं।
*जाने वाली चीज़ का गम क्या करें*?

दूरियों ने दिल को पत्थर कर दिया।
आँख फिर भी हो रही नम, क्या करे ?

खुद ही काँटे राह में जब बो दिए।
तब चुभन का यार मातम क्या करें ?

आग जबसे गुलसिताँ में है लगी।
जल रहा है आबे झेलम क्या करें ?

दीद में मेरी पवन बस वो ही वो।
अलहदा है मेरा हमदम क्या करें ?

                      ✍ डॉ पवन मिश्र

पैहम= लगातार, बार-बार
आबे झेलम= झेलम नदी का पानी
*दाग देहलवी साहब का मिसरा

ग़ज़ल- जल रही घाटी नज़ारे जल रहे हैं


जल रही घाटी नज़ारे जल रहे हैं।
सैनिकों पर आज पत्थर चल रहे हैं।।

बाढ़ आंधी से बचाते नस्ल उनकी।
और रक्षक ही उन्हें अब खल रहे हैं।।

फूल की देवी बताओ मौन क्यूँ हो ?
जब सपोले मेरी माँ को छल रहे हैं।।

क्यारियाँ केसर की मुरझाने लगीं अब।
हुक्मरां बस हाथ बैठे मल रहे हैं।।

आपसे उम्मीद थी माँ भारती को।
आप भी माहौल में अब ढल रहे हैं।।

छोड़ दो गीता उठाओ अब सुदर्शन।
ख़ाक मंसूबे करो जो पल रहे हैं।।

                      ✍ डॉ पवन मिश्र

Tuesday 4 April 2017

ग़ज़ल- फिर आ जाओ रिमझिम सी बरसात लिये

मेरी छत पर पूनम की इक रात लिये।
फिर आ जाओ रिमझिम सी बरसात लिये।।

यादों की गलियाँ कब तक यूँ महकेंगी।
सूखे फूलों की तेरी सौगात लिये।।

शबे तार है वीरानी है तन्हाई है।
कब तक भटकूँ अफ़सुर्दा हालात लिये।।

अक़्सर आँसू आंखों में आ जाते हैं।
वही पुरानी तेरी कोई बात लिये।।

शबे वस्ल में माहताब के दरवाजे पर।
हम आये हैं तारों की बारात लिये।।

तुम आओगे फ़लक नूर बरसायेगा।
मैं बैठा हूँ कितने ही जज़्बात लिये।।

                        ✍ डॉ पवन मिश्र
शबे तार= अंधेरी रात
अफ़सुर्दा= खिन्न, उदास
शबे वस्ल= मिलन की रात
नूर= प्रकाश