Saturday 15 April 2017

ग़ज़ल- क्या करें


इल्तिज़ा उस दर पे पैहम क्या करें ?
वो ही जब सुनता नहीं हम क्या करें ?

लेके क़श्ती आ गए मझधार तक।
इससे ज्यादा हौसला हम क्या करें ?

जो गया वो था मुक़द्दर में नहीं।
*जाने वाली चीज़ का गम क्या करें*?

दूरियों ने दिल को पत्थर कर दिया।
आँख फिर भी हो रही नम, क्या करे ?

खुद ही काँटे राह में जब बो दिए।
तब चुभन का यार मातम क्या करें ?

आग जबसे गुलसिताँ में है लगी।
जल रहा है आबे झेलम क्या करें ?

दीद में मेरी पवन बस वो ही वो।
अलहदा है मेरा हमदम क्या करें ?

                      ✍ डॉ पवन मिश्र

पैहम= लगातार, बार-बार
आबे झेलम= झेलम नदी का पानी
*दाग देहलवी साहब का मिसरा

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