Sunday 19 November 2017

ग़ज़ल- ले जाएंगे


इश्क़ की हर रस्म हमदम हम निभा ले जाएंगे।
गर नहीं अब्बा जो माने हम भगा ले जाएंगे।।

डेढ़ पसली के थे लेकिन इश्क़ के मारे थे हम।
सोच थी चौहान बन संयोगिता ले जाएंगे।।

चैन दिल का ले गए और खोपड़ी के बाल भी।
ज़र ज़मीं भी ले गए वो और क्या ले जाएंगे ?

ख्वाब आंखों से मिटा के आंसुओं से भर दिया।
हम बहे तो देख लेना सब बहा ले जाएंगे।।

जुगनुओं से जीतना जिनकी नहीं औकात में।
कैद कर सूरज को मेरे वो भला ले जाएंगे ?

जो बहुत उम्मीद लेकर रहनुमा के साथ हैं।
और कुछ चाहे न पाएं रायता ले जाएंगे।।

साठ सालों तक तिजोरी की हिफाजत दी जिन्हें।
क्या पता था एक दिन वो सब चुरा ले जाएंगे।।

                                   ✍ डॉ पवन मिश्र

Sunday 12 November 2017

कहूँ लेखनी से कैसे मैं, लिखो आज श्रंगार

(सरसी छन्द आधारित रचना)

गली-गली अब घूम रहे हैं, देखो रंगे सियार।
अर्थ काम तक ही सीमित है, इनका हर व्यवहार।।
सोन चिरइया लूट रहे जब, माटी के गद्दार।
कहूँ लेखनी से कैसे मैं, लिखो आज श्रंगार ?

बिलख रहे हैं भूखे बालक, रोटी की ले चाह।
वंचित बचपन भटक रहा है, कौन दिखाये राह।।
चुभती है सीने में मेरे, उनकी करुण पुकार।
कहूँ लेखनी से कैसे मैं, लिखो आज श्रंगार ?

माली ही जब पोषित करता, सारे खर-पतवार।
किससे जाकर पुष्प कहें तब, मन पर क्या है भार ?
अनदेखा कैसे मैं कर दूँ, काँटों का व्यभिचार।
कहूँ लेखनी से कैसे मैं, लिखो आज श्रंगार ?

नेताओं की कोरी बातें, झूठ मूठ बकवास।
नहीं इन्हें परवाह देश की, बस सत्ता की प्यास।।
जब शोषित जनता का स्वर बन, करना है प्रतिकार।
कहूँ लेखनी से कैसे मैं, लिखो आज श्रंगार ?

                               ✍ डॉ पवन मिश्र

Sunday 5 November 2017

ग़ज़ल- ख़्वाब बाकी है इक दीवाने का


वक्त आया नहीं है जाने का।
ख़्वाब बाकी है इक दीवाने का।।

तोड़कर घोंसला दीवाने का।
क्या भला हो गया जमाने का।।

आओ बैठो जरा करीब मेरे।
ख़्वाब देखा है घर बसाने का।।

तैरते तैरते कहां जाऊँ।
अब इरादा है डूब जाने का।।

रूठ के अब जुदा न होना तुम।
हौसला अब नहीं मनाने का।।

मोल कुछ भी नहीं मिलेगा पवन।
आंसुओं को यहां बहाने का।।
           
             ✍ डॉ पवन मिश्र