समर कैम्प, बच्चों का उत्साह और मैं...
पिछले कई दिनों से मन हो रहा था कि बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये परिषदीय विद्यालयों में चल रहे समर कैम्प का हिस्सा बना जाए। प्रतिदिन व्हाट्सअप के जरिये प्राप्त होने वाले चित्र और वीडियोज से इसके प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी। प्राप्त हो रहे वीडियोज में बच्चों का अनुशासित होकर योग-व्यायाम करना हो या किसी गतिविधि के पश्चात उन्मुक्त होकर उनका नाचना-कूदना, मिट्टी में सने हाथों से कल्पनाओं को मूर्त रूप देना हो या कमर पर टिके हूलाहूप को तेजी से गोल-गोल घुमाना....सब कुछ करीब से महसूस करना चाहता था, देखना चाहता था बस्ते के बोझ के बिना बच्चों की उड़ान को।
इन्हीं आकर्षणों के वशीभूत होकर आज निश्चित किया कि कुछ विद्यालयों के समर कैम्प का हिस्सा बनना है और प्रातः 6 बजे के आसपास निकल पड़ा घर से। सड़क पर लगभग सन्नाटा ही था, कार तेजी से चल पड़ी कानपुर जनपद के सरसौल विकास खण्ड की तरफ। बीस मिनट बाद ही विकास खण्ड की सीमा में प्रवेश किया तब विचार आया कि किस विद्यालय से आरंभ करनी है आज की यात्रा ? किन-किन विद्यालयों में जाना है यह तो तय ही नहीं किया अभी? व्हाट्सअप समूह में आने वाले चित्र और वीडियोज के साथ उनके विद्यालयों के नाम धीरे-धीरे मस्तिष्क में उभरने लगे। विचारों की चक्की तेजी से चलने लगी और कार तो अपनी गति से चल ही रही थी। थोड़ी ही देर में स्वयं को विकास खण्ड मुख्यालय के सामने पाया। तब तक मन ही मन निश्चित भी कर चुका था कि उसी स्कूल से आज का दिवस प्रारम्भ करना है जहाँ से नित्य नए-नए वीडियोज आते हैं। जहां के प्रधानाध्यापक, समर कैम्प में ऐच्छिक उपस्थिति के विभागीय निर्देश होने के बाद भी ससमय विद्यालय आते हैं। जिनकी जीवंतता वीडियोज में देखते ही बनती है। जहां के वीडियोज में दिखती है शिक्षा मित्रों के सहयोग से होने वाली दैनिक गतिविधियों में बच्चों की गहरी भागीदारी, उनका उल्लास और उनका उत्साह। थोड़ी ही देर में मां गंगा के कटरी क्षेत्र में स्थित विकास खण्ड के एक दूरस्थ विद्यालय के सामने कार रुकी। सम्मुख था, कानपुर के सरसौल विकास खण्ड का पीएम श्री कम्पोजिट विद्यालय दिबियापुर।
घड़ी पर निगाह पड़ी तो 7.10 हो चुके थे। विद्यालय की साफ-सफाई हो चुकी थी। बच्चे प्रार्थना के लिये पंक्तिबद्ध हो रहे थे। सभी से औपचारिक अभिवादन बाद मैं भी उस प्रार्थना सभा का हिस्सा बना, जिसमें विद्यालय के इंचार्ज प्रधानाध्यापक के साथ, उनके सहयोगी शिक्षा मित्र, रसोइए और बच्चे थे। प्रार्थना के बाद इंचार्ज प्रधानाध्यापक आशीष सिंह जी ने बच्चों को योग-व्यायाम आदि कराए। उसी बीच मैंने देखा कि विद्यालय के शिक्षा मित्र कुछ सजावटी सामान, ग्रीन बोर्ड आदि के साथ विद्यालय के एक हिस्से को सजाने में जुटे हैं। जानकारी मिली कि चूंकि आज 31 मई है, अतः विद्यालय में महारानी अहिल्याबाई होल्कर की जंयती मनाई जानी है। जब तक बच्चे व्यायाम कर रहे थे इधर शिक्षा मित्रद्वय ने मंच जैसा एक स्थान सज्जित कर दिया, ग्रीन बोर्ड पर कार्यक्रम का विवरण लिखा गया था, प्रतीकात्मक रूप से बच्चों के घोड़े वाले खिलौने, बेंच, कुर्सी आदि की सहायता से एक रथ जैसा सेटअप भी तैयार किया गया था। व्यायाम सत्र सम्पन्न हुआ। थोड़ी ही देर बाद एक कक्ष से 'ॐ नमः शिवाय' का जाप आना प्रारम्भ हुआ और देखा कि विद्यालय की एक बालिका वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर का रूप धरे, हाथों में शिवलिंग पकड़े, जाप करती चली आ रही है। उसके साथ बच्चों की टोली, 'महारानी की जय हो' के नारे लगाते हुए मंच की तरफ बढ़ने लगी। यह सब मेरे लिये तनिक आश्चर्यचकित करने वाला रहा क्योंकि मैं इस तरह के किसी कार्यक्रम की कल्पना नहीं कर रहा था। मैं अचंभित सा जड़वत हो इस गतिविधि को निहारे जा रहा था। धीरे-धीरे बच्चों के उत्साह, महारानी बनी बालिका के चेहरे के तेज और 'ॐ नमः शिवाय' के निरंतर हो रहे जाप ने मुझे भी कार्यक्रम के रंग में पूरी तरह रँग दिया। अहिल्याबाई बनी वह बालिका रथ पर आसीन हुई जिसकी लगाम एक सारथी बने बालक ने थाम रखी थी। मैंने और आशीष सिंह जी ने बच्चों को महारानी अहिल्याबाई होल्कर के विषय में जानकारी दी, किस्से सुनाए और बच्चों ने आनन्दित मन से सब सुना।
इसके बाद बच्चों को बिस्किट का वितरण किया गया। अब बच्चे तैयार थे आज की तीसरी गतिविधि के लिये, 'रीडिंग कैम्पेन'। विद्यालय के सुव्यवस्थित पुस्तकालय में बच्चे सलीके से बैठे। विद्यालय में पुस्तकों का समृद्ध संग्रह था। बच्चों ने अपनी-अपनी मनपसंद पुस्तकों को लिया और पूरे मनोयोग से पढ़ने लगे। सामने पुस्तकालय था, पुस्तकें थी, बच्चे पढ़ रहे थे तो मैं भी भीतर के शिक्षक को रोक नहीं पाया और पुस्तकालय में चला गया। पुस्तक-पठन को लेकर बच्चों से खूब चर्चा हुई। उन्हें एपीजे अब्दुल कलाम जी के जीवन का पुस्तक पढ़ने से संदर्भित एक किस्सा भी सुनाया। बच्चों सँग अत्यंत सहज संवाद स्थापित हो चुका था और पता ही नहीं चला कि कब दस बज गए। वैसे तो मेरी योजना थी दो-तीन विद्यालयों के समर कैम्प का हिस्सा बनने की। लेकिन दिबियापुर विद्यालय के बच्चों के उत्साह, उमंग, आनन्द और जीवंत भागीदारी ने समय का पता ही न चलने दिया। अंत में बच्चे पुनः अनुशासित रूप से पंक्तिबद्ध होकर राष्ट्रगान के लिये एकत्रित हुए। एक स्वर में राष्ट्रगान हुआ तत्पश्चात बॉय सर, बॉय सर की आवाज लगाते बच्चे अपने-अपने घरों को जाने लगे। विद्यालय स्टाफ से औपचारिक अभिवादन के बाद मैंने भी कार स्टार्ट की और वापसी की राह पकड़ी। कानों में बॉय सर, बॉय सर की आवाज मद्धिम पड़ने लगी थी, गूंज थी तो बस आज बच्चों सँग हुए संवाद की, उनके उत्साह की, उनके उमंग की और शायद यही इस समर कैम्प की सफलता के मापदंड भी हैं। विषम परिस्थितियों में होने वाले इन समर कैम्प की सफलता और असफलता को लेकर भिन्न-भिन्न विचार हो सकते हैं लेकिन इतना तो तय है कि जब गंगा कटरी जैसे क्षेत्र में अवस्थित दिबियापुर जैसे दूरस्थ विद्यालय में समर कैम्प का इतनी सफलता से संचालन किया जा सकता है तो स्वप्रेरणा, दृढ़ इच्छाशक्ति और स्टाफ के आपसी समन्वय से कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। अपने ही लिखे एक शेर से इस लेख को समाप्त कर रहा हूँ।
"करो कोशिश तो पत्थर टूटता है।
मेरी मानो तो अक्सर टूटता है।।"
✍️ डॉ पवन मिश्र
(एआरपी- विज्ञान)
सरसौल, कानपुर नगर