फ़िज़ाओं में गुलों के रंग-ओ-बू में
उसे ही ढूंढता हूँ कू-ब-कू में
उसे ही ढूंढता हूँ कू-ब-कू में
जिसे परवा नहीं मेरी तनिक भी
वही शामिल है मेरी आरजू में
छुड़ाकर हाथ उसने राह बदली
मैं तो अब भी फँसा हूँ गू-मगू में
जो तुम हो तो बहारें रक्स करतीं
नहीं तो बू नहीं है मुश्कबू में
सियासतदां अभी पुरनींद में हैं
कसर बाकी है शायद हाव-हू में
कसर बाकी है शायद हाव-हू में
वतन की साख पर जब बात आए
उबाल आना जरूरी है लहू में
✍️ डॉ पवन मिश्र
कू-ब-कू= इस गली-उस गली, सर्वत्र
गू-मगू= असमंजस
रक्स= नृत्य
मुश्कबू= कस्तूरी की गंध
हाव-हू= शोर-शराबा
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