ज़लील रहनुमाओं के नक़ाब देखते रहो।
दिखा रहे तुम्हे जो ये सराब देखते रहो।।
छुरी छिपा के दिल में ये ज़ुबाँ के खेल से ही बस।
चुकाते किस तरह से हैं हिसाब देखते रहो।।
लगेगा हाथ कुछ नहीं यहाँ सिवाय ख़ाक के।
है लुत्फ़ तुमको ख़्वाब में तो ख़्वाब देखते रहो*।।
सवाल हैं वही मगर सिखाती जिंदगी यही।
बदलते दौर में नए जवाब देखते रहो।।
हरिक तरह का है चलन जमाने के रिवाज़ में।
ये कैसी बेरुखी कि बस खराब देखते रहो।।
खिली सी धूप को लिये वो सुब्ह फिर से आयेगी।
कि तब तलक फ़लक पे माहताब देखते रहो।।
नहीं है पास कुछ मेरे वफ़ा के नाम के सिवा।
पवन खुली किताब है, किताब देखते रहो।।
✍ डॉ पवन मिश्र
*एहतराम इस्लाम साहब का मिसरा
सराब= मृगतृष्णा
फ़लक= आसमान
माहताब= चंद्रमा
Bahut hi shandar pavan bhaiya... "claps"
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