Wednesday, 10 August 2016

हरिगीतिका छन्द- प्रेम


यह प्रेम अद्भुत भाव मानो,
पवन शीतल मन्द हो।
पिंगल रचित निर्दोष मनहर,
मान कोई छन्द हो।।
गीता स्वरूपी देववाणी,
वेद का यह सार है।
पावन पुनीता शिव दुलारी,
सुरसरी की धार है।१।

चातक पिपासा है तरसता,
स्वाति की बूँदे मिलें।
रिमझिम छुवन उन्मुक्त कर दे,
सीप में मोती खिलें।
आकुल चकोरा ढूँढता है,
चन्द्रमा को क्लान्त हो।
रजनीश आओ चाँदनी ले,
तन-तपन कुछ शान्त हो।२।

बेला मिलन की है कभी तो,
है विरह की रैन भी।
चितवन मनोहर हैं कहीं तो,
अश्रुपूरित नैन भी।।
बेकल हृदय संत्रास सहता,
पिय दरस की आस में।
रति भाव हिय में ले हिलोरें,
मीत हो जब पास में।३।

ईश्वर सदृश यह प्रेम होता,
सृष्टि का उद्भव यही।
है व्यर्थ जीवन प्रेम के बिन,
बात ये ही है सही।।
जो हिय बसाये प्रेम अपने,
प्रेम से ही जो खिले।
उस जीव का जीवन सफल है,
पूर्णता उसको मिले।४।

✍डॉ पवन मिश्र

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