पूर्णिमा की रात देखो आ गई।
चांदनी चहुँ ओर नभ पर छा गई।।
रोज अपने हौसलों से कुछ कदम,
चांदनी को साथ लेकर वो चला।
तम की गहरी कालिमा को लील कर,
वो उजाले के लिये खुद ही जला।।
बिन थके चलता रहा लड़ता रहा,
चांद की यह बात मुझको भा गई।
पूर्णिमा की रात देखो आ गई।।
चांदनी को साथ लेकर वो चला।
तम की गहरी कालिमा को लील कर,
वो उजाले के लिये खुद ही जला।।
बिन थके चलता रहा लड़ता रहा,
चांद की यह बात मुझको भा गई।
पूर्णिमा की रात देखो आ गई।।
लग रहा मानों जलधि भी व्यग्र है,
ज्वार बन लहरें यही बतला रहीं।
नभ समेटे अपनी बांहों में यहां,
रश्मियां तारों की भी मुस्का रहीं।।
कवि अकिंचन को भी देखो चांदनी,
रूप नव इक काव्य का दिखला गई।
पूर्णिमा की रात देखो आ गई,
चांदनी चहुँ ओर नभ पर छा गई।।
ज्वार बन लहरें यही बतला रहीं।
नभ समेटे अपनी बांहों में यहां,
रश्मियां तारों की भी मुस्का रहीं।।
कवि अकिंचन को भी देखो चांदनी,
रूप नव इक काव्य का दिखला गई।
पूर्णिमा की रात देखो आ गई,
चांदनी चहुँ ओर नभ पर छा गई।।
✍ डॉ पवन मिश्र
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