बजी शहनाई तो टूटा भरम अबकी दिसम्बर में
बहुत रोई मेरी आँखें सनम अबकी दिसम्बर में
बहुत बेरंग, बेहिस और ठंडे हो गए रिश्ते
ये कैसा है तिरा मुझ पे सितम अबकी दिसम्बर में
लड़कपन छोड़ कर संजीदगी से पेश आओ तुम
हुए चालीस के तुम भी सनम अब की दिसंबर में
रदीफ़ो काफ़िया मिलते नहीं बेज़ार हैं मिसरे
बताओ क्या लिखे मेरी कलम अबकी दिसम्बर में
कुहासे की घनी चादर उमीदों का है सूरज गुम
खुदाया कर जरा कुछ तो करम अबकी दिसम्बर में
असर मेरी मुहब्बत का हुआ कुछ इस कदर उन पर
मेरी ज़ानिब चले उनके कदम अबकी दिसम्बर में
गुजरते साल की टीसें भुलाकर ख़्वाब-ए-नौ देखें
चलो खाते हैं हम ये ही क़सम अबकी दिसम्बर में
✍️ डॉ पवन मिश्र
बेहिस= असंवेदनशील
ख़्वाब-ए-नौ= नये ख़्वाब, नव स्वप्न
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