गीत-
चैत्र माह बीता है लेकिन मानो जैसे जेठ आ गया
बदरा दुबके डर के मारे प्रखर सूर्य चहुँओर छा गया
खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है
बीच-बीच में गमछे से वो बहा पसीना पोछ रहा है।
खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है।।
भीषण गर्मी तन झुलसाए दुपहरिया भी है धूप भरी
सूर्य किरण से ताप ग्रहण कर गेहूं बाली हुई सुनहरी
तन जलता है हरिया का पर मन हर्षित है खेत देखकर
फिर भी कुछ तो है ऐसा जो भीतर-भीतर नोंच रहा है
खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है
अम्बर से है आग बरसती सूख रहे सब ताल-तलैया
पशु-पक्षी भी व्याकुल फिरते ठौर कहीं ना मिलता भैया
लेकिन हरिया कैसे कह दे ? हे ईश्वर बरसाओ पानी
पकी फसल तैयार खड़ी वह मन ही मन संकोच रहा है
खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है
लेकिन आखिर इतनी गर्मी ? किसकी गलती, कौन बताए ?
गांवों में भी शहर घुस गया कंकरीट के जंगल छाए
मौसम के ताने-बाने को आखिर किसने क्षय कर डाला ?
ढेरों ऐसे प्रश्न लिये वो उत्तर खुद में खोज रहा है
खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है
तभी अचानक दूर गगन में काले काले घन गहराए
हरिया का हिय कांप उठा फिर बारिश आयी ओले आए
पशु पक्षी तो नाच रहे पर कलप रही है फसल बिचारी
भीतर तक वो टूट गया अब बहते आंसू पोछ रहा है
खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है।।
बीच-बीच में गमछे से अब बहते आंसू पोछ रहा है।।
✍️ डॉ पवन मिश्र
No comments:
Post a Comment