मुक़्तदिर वो थे बने जिन के लिये।
आज कहते कुछ नहीं इन के लिये।।
दे गए वो अश्क़ खुशियों की जगह।
आँख थी ये मुंतज़िर जिन के लिये।।
जानते थे जी नहीं पाओगे तुम।
लौट आये एक लेकिन के लिये।।
इस दफ़ा हमने सताया रूठ कर।
उनसे बदले हमने गिन गिन के लिये।।
छोड़ कर तक़दीर का दामन ज़रा।
हौसला कर गैरमुम्किन के लिये।।
आँधियों का काम था वो कर गयीं।
जूझना है फिर मुझे तिनके लिये।।
खौफ़ आँखों में कयामत का नहीं।
मुन्कसिर हाज़िर है उस दिन के लिये।।
मुतमइन खुद ही नहीं जब ऐ पवन।
मुंतशिर फिर क्यों रहे इन के लिये।।
✍ डॉ पवन मिश्र
मुक़्तदिर= सत्तावान
मुंतजिर= प्रतीक्षारत
गैरमुम्किन= असम्भव
मुन्कसिर= ख़ाकसार
मुतमइन= इत्मीनान/सन्तुष्ट होना
मुंतशिर= परेशान
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