रोज करता खेल शह औ मात का।
रहनुमा पक्का नहीं है बात का।।
कब पलट कर छेद डाले थालियाँ।
कुछ भरोसा है नहीं इस जात का।।
पत्थरों के शह्र में हम आ गए।
मोल कुछ भी है नहीं जज़्बात का।।
ख्वाहिशें जब रौंदनी ही थी तुम्हे।
क्यूँ दिखाया ख़्वाब महकी रात का।।
इंकलाबी हौसलें क्यों छोड़ दें।
अंत होगा ही कभी ज़ुल्मात का।।
मुल्क़ से अपने जो करता साजिशें।
जिक्र क्या करना है उस बदजात का।।
मेंढकों थोड़ा अदब तो सीख लो।
क्या भरोसा बेतुकी बरसात का।।
पीढ़ियों से तख़्त पर काबिज़ तुम्ही।
कौन दोषी आज के हालात का।।
बस बजाना गाल जिनका काम है।
क्या पता उनको पवन औकात का।।
✍ डॉ पवन मिश्र
Waah waah bhaiya
ReplyDeleteआभार बन्धु
Delete