रूपवती सखि प्राणप्रिये,
निज रूप अनूप दिखाय रही।
ओंठन से छलका मदिरा,
हिय को हर बार रिझाय रही।
बैठि सरोवर तीर प्रिये,
बस नैनन बान चलाय रही।
नैन मिले जब नैनन से,
तब लाजन क्यूँ सकुचाय रही।
✍ डॉ पवन मिश्र
शिल्प- 7 भगण (२११×७)+१ गुरू, सामान्यतः 10,12 वर्णों पर यति।
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