वेद ऋचाएं अपमानित कर,
कुल को शापित कर बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।।
तुम जयघोष समझ बैठे।।
कुल को शापित कर बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।।
तुम जयघोष समझ बैठे।।
मेरा क्या मैं तो वैरागी,
हर दुख-सुख में, मैं प्रतिभागी।
धन-पद की भी चाह नहीं है,
नेह मिलन का मैं अनुरागी।
मैं अपनों सँग मस्त पड़ा था,
तुम बेहोश समझ बैठे।।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।१।
हर दुख-सुख में, मैं प्रतिभागी।
धन-पद की भी चाह नहीं है,
नेह मिलन का मैं अनुरागी।
मैं अपनों सँग मस्त पड़ा था,
तुम बेहोश समझ बैठे।।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।१।
माना हर मोती तुम लाये,
चाटुकार भी कुछ बुलवाये।
प्रेम तन्तु से हमने गूंथा,
तब मोती माला में आये।
मैं रिश्तों का गर्वित माथा,
तुम अफ़सोस समझ बैठे।।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।२।
चाटुकार भी कुछ बुलवाये।
प्रेम तन्तु से हमने गूंथा,
तब मोती माला में आये।
मैं रिश्तों का गर्वित माथा,
तुम अफ़सोस समझ बैठे।।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।२।
मन मन्दिर में तुम्हे बिठाकर,
तुम पर सारा नेह लुटाकर।
सोच रहा मैं आज अकिंचन,
क्या पाया है तुमको पाकर।
नकली नोटों के गठ्ठर को,
तुम अधिकोष समझ बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।३।
तुम पर सारा नेह लुटाकर।
सोच रहा मैं आज अकिंचन,
क्या पाया है तुमको पाकर।
नकली नोटों के गठ्ठर को,
तुम अधिकोष समझ बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।३।
चौसर तेरी प्यादे तेरे,
राहु केतु बन करते फेरे।
द्रोण, भीष्म औ विदुर मौन हैं,
पांडु पुत्र को कौरव घेरे।
शकुनी की चालें ना समझीं,
मेरा दोष समझ बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।४।
राहु केतु बन करते फेरे।
द्रोण, भीष्म औ विदुर मौन हैं,
पांडु पुत्र को कौरव घेरे।
शकुनी की चालें ना समझीं,
मेरा दोष समझ बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।४।
✍ डॉ पवन मिश्र
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