तीरगी में गर उजाला चाहिये।
बन के जुगनू जगमगाना चाहिये।।
बन के जुगनू जगमगाना चाहिये।।
गर ये चाहत है, किनारा चाहिये।
हौसलों को आजमाना चाहिये।।
हौसलों को आजमाना चाहिये।।
पेचो ख़म माना बहुत हैं इश्क़ में।
फिर भी सबको इश्क़ होना चाहिये।।
फिर भी सबको इश्क़ होना चाहिये।।
जब दीवारें बोलने घर की लगें।
दोस्तों को घर बुलाना चाहिये।।
दोस्तों को घर बुलाना चाहिये।।
दो कदम क्या, चार चल कर आऊंगा।
पर तुम्हे भी ये सलीका चाहिये।।
पर तुम्हे भी ये सलीका चाहिये।।
सख़्त हाथों से नही रिश्ते बनें।
ज़रकशी जैसा सलीका चाहिये।।
ज़रकशी जैसा सलीका चाहिये।।
टूटकर वो भी मिलेगा धूल में।
ख़ार को भी ये समझना चाहिये।।
ख़ार को भी ये समझना चाहिये।।
आज भी रोटी की ही जद्दोजहद ?
रहनुमा को डूब मरना चाहिये।।
रहनुमा को डूब मरना चाहिये।।
गर्द जिनके जम गई किरदार पर।
आइना उनको दिखाना चाहिये।।
आइना उनको दिखाना चाहिये।।
कब तलक यूँ शेर जोड़ोगे मियां।
अब ग़ज़ल में वज़्न आना चाहिये।।
अब ग़ज़ल में वज़्न आना चाहिये।।
✍ *डॉ पवन मिश्र*
तीरगी= अंधेरा
पेचो ख़म= कठिनाइयाँ
ज़रकशी= सोने-चांदी के तारों से होने वाला काम
पेचो ख़म= कठिनाइयाँ
ज़रकशी= सोने-चांदी के तारों से होने वाला काम
ख़ार= काँटा
No comments:
Post a Comment