मंजिल तक बस वो ही जाने वाले थे
जिन पैरों में मोटे-मोटे छाले थे
आसमान भी उसकी ख़ातिर छोटा था
उम्मीदों के पंछी जिसने पाले थे
संसद के गलियारों में जाकर देखा
उजले कपड़े वाले दिल के काले थे
कैसे रखते बात गरीबों के हक की?
मुँह पे उनके चांदी वाले ताले थे
लौट पड़े चुपचाप उन्हीं की जानिब सब
ज़ख्मों से जो हमने तीर निकाले थे
मौत ज़हर से ही तो मेरी होनी थी
आस्तीन में सांप बहुत से पाले थे
✍️ डॉ पवन मिश्र
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