हर घड़ी अन्याय का प्रतिकार होना चाहिये
क्रूरता के वक्ष पर चढ़ वार होना चाहिये
क्रूरता के वक्ष पर चढ़ वार होना चाहिये
मूक दर्शक बन के कब तक देखना विस्तार को
जंगली बेलों का अब उपचार होना चाहिये
झूठ के विज्ञापनों का शोर कब तक हम सुनें
सत्य के संवाद का अख़बार होना चाहिये
यदि हो वाणीपुत्र तो फिर राग दरबारी तजो
लेखनी में आपकी अंगार होना चाहिये
थक गया हूँ लड़ते लड़ते ज़िंदगी की जंग मैं
इस लड़ाई में भी इक इतवार होना चाहिये
मात्र मेरी भावना से बन नहीं पाएगी बात
आपकी आंखों में भी तो प्यार होना चाहिये
लिबलिबा व्यक्तित्व लेकर जी रहे तो व्यर्थ है
रीढ़ की हड्डी पे कुछ तो भार होना चाहिए
✍️ डॉ पवन मिश्र
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