हमारी तरक्की से जलने लगा है।
पड़ोसी मेरा घात करने लगा है।।
रँगे हाथ उसको पकड़ जब लिया तो।
कहानी नई फिर वो गढ़ने लगा है।।
मेरे हौसलों से तो टकरा के यारों।
वो पत्थर भी देखो दरकने लगा है।।
जऱा सी चमक में कलम बेच के वो।
सियासत न जाने क्यूँ करने लगा है।।
बिठाया था दिल में जिसे हसरतों से।
नज़र से मेरी वो उतरने लगा है।।
मेरे मुल्क़ की नेकनीयत भुला के।
दिलों में जहर अब वो भरने लगा है।।
खियाबाँ को किसकी नज़र लग गयी अब।
कि गुल बाग़बाँ से ही डरने लगा है।।
✍डॉ पवन मिश्र
खियाबाँ= बाग़ बाग़बाँ= माली
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