Sunday, 18 December 2016

अतुकान्त- कविता

'कविता'
जन्मती है भाव से
शिल्प के साँचे में
शब्दों में गुथकर
बिम्ब का श्रृंगार पा
निरखती है नव-वधू सी
जैसे सेती है धरती
स्वयं के भीतर
अन्न के दाने को
सींचता है किसान
पसीने से
धैर्य से
फिर धीरे धीरे
पीली धरती
हरिया जाती है
निहाल है किसान ;
प्रमुदित है कवि
आज जिया है उसने
अलसाई भोर की नींद को
सर्दी की धूप को
दुधमुँहे की किलकारी को
तरूणी की लाज को
माँ के दुलार को
पिता के स्वप्न को
प्रेयसी के समर्पण को
प्रेमी के विश्वास को
आज फूटे हैं अंकुर
आज जन्मी है 'कविता'

✍ डॉ पवन मिश्र

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