कौन कहता शह्र को बस लूटती हैं झुग्गियाँ।
मुफ़लिसी में हो बशर तो थामती हैं झुग्गियाँ।।
आग की वो हो लपट या भुखमरी या बारिशें।
हर थपेड़े यार हँस के झेलती हैं झुग्गियाँ।।
दिन कटा है मुश्किलों में रात भी भारी मगर।
ख्वाब कितने ही तरह के पालती हैं झुग्गियाँ।।
कब तलक यूँ नींद में ही गुम रहेगा रहनुमा।
डोलता है तख़्त भी जब बोलती हैं झुग्गियाँ।।
वो सियासी रोटियों को लेके आये हैं इधर।
अधपकी उन रोटियों को सेंकती हैं झुग्गियाँ।।
वायदों की टोकरी से है भरी हर इक गली।
हर चुनावी दौर में ये देखती हैं झुग्गियाँ।।
✍ डॉ पवन मिश्र
मुफ़लिसी= गरीबी बशर= आदमी
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