दर्द हद से बढ़ रहा है, आँख नम, किससे कहूँ ?
अपने ही जब ढा रहे, मुझ पे सितम, किससे कहूँ ?
आइना भी हो गया बेज़ार मुझसे अब यहाँ।
सुनने वाला कौन है मैं अपना ग़म किससे कहूँ ?*
चंद सिक्कों की चमक में ठूँठ जैसी हो गयी।
हे विधाता मौन जब कवि की कलम, किससे कहूँ ?
माना मंज़िल मुंतज़िर अब भी खड़ी है राह में।
छोड़ दें गर हौसला अपने कदम, किससे कहूँ ?
घोसलें तो मैं सजा दूँ फिर से सूनी शाख़ पे।
पर परिन्दे ही न माने तो सनम किससे कहूँ ?
देश का अभिमान थे, सम्मान थे जो रहनुमा।
उनके चमचे अब करें नाकों में दम, किससे कहूँ ?
अम्न लाने की थी जिम्मेदारियां जिनपे पवन।
वो सियासतदार ही जब बेरहम, किससे कहूँ ?
✍ डॉ पवन मिश्र
* समर कबीर साहब, उज्जैन का मिसरा
No comments:
Post a Comment