हे मनुपुत्र !
माना तुम समर्थ हो,
अति समर्थ
पौध रोपी है तुमने
झाड़-झंखाड़ भी उगाए
नरमुण्ड एकत्र कर
भीड़ को जन्मा है तुमने
जयकारों से गुंजित हैं दिशाएं
आकाश भी, वाणी भी
स्वयं को बताने लगे जगदीश
ऊँची शिला पर बैठ
देने लगे ज्ञान
नीचे बैठी भीड़ को
मैं-मैं करते करते
भूल गए हमें
बेशक
उस भीड़ में मैं भी हूँ
लेकिन हे स्वयम्भू जगदीश
तुम्हारी भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ।
क्या हुआ ? चुभ गया तुम्हे ?
लेकिन क्यों ?
ऊँची शिला पर
बैठे हो बस
जगदीश नहीं हो तुम
मनुपुत्र हो, मनुपुत्र।
✍ डॉ पवन मिश्र
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