Sunday, 17 September 2017

ग़ज़ल- मुहब्बत का इरादा क्यूँ करें हम


वही गलती दुबारा क्यूँ करें हम।
मुहब्बत का इरादा क्यूँ करें हम।।

जिन्हें पर्वा नहीं कोई हमारी।
उन्हें आख़िर पुकारा क्यूँ करें हम।।

यकीं हो गर तुम्हे हमपे तो आओ।
वफ़ादारी का दावा क्यूँ करें हम**।।

तेरी तस्वीर रख ली है रहल पे।
मुहब्बत इससे ज़्यादा क्यूँ करें हम।।

नहीं दिल से अगर उठती सदायें।
नवाज़िश का दिखावा क्यूँ करें हम।।

कज़ा के सामने देगी दगा वो।
भरोसा जिंदगी का क्यूँ करें हम।।

                    ✍ डॉ पवन मिश्र

रहल= लकड़ी का आधार जिसपर रखकर धर्मग्रन्थ पढ़ते हैं
सदायें= आवाजें
नवाज़िश= मेहरबानी, दया
कज़ा= मौत
**जॉन औलिया साहब का मिसरा

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