Sunday, 28 March 2021

ग़ज़ल- धीरे धीरे तीरगी मिट जाएगी


मेरी हर इक तिश्नगी मिट जाएगी

वो मिलें तो बेकली मिट जाएगी


वो फ़क़त हाथों में ले लें हाथ ये

जीस्त से नाराज़गी मिट जाएगी


बाम पर आ जाएं बस वो इक दफा

कालिमा इस रात की मिट जाएगी


गुफ़्तगू की नाव लेकर आइये

फ़ासलों की हर नदी मिट जाएगी


वो न होंगे ज़िंदगी में जब मेरी

सच कहूं तो हर खुशी मिट जाएगी


उनके सारे ख़त जला आया हूँ आज

धीरे धीरे याद भी मिट जाएगी


हर दिये को हौसला कुछ दीजिये

धीरे धीरे तीरगी मिट जाएगी


आंख का पानी न मरने दीजिये

वरना फिर ये ज़िंदगी मिट जाएगी


बागबां ही ख़ार गर बोने लगे

बाग की हर इक कली मिट जाएगी


                  ✍️ डॉ पवन मिश्र

तिश्नगी= प्यास

जीस्त= जीवन

तीरगी= अंधेरा

ख़ार= कांटा

Sunday, 28 February 2021

ग़ज़ल-कब मैंने ये कहा कि मिरा हू-ब-हू करें

 221 2121 1221 212


कब मैंने ये कहा कि मिरा हू-ब-हू करें

लेकिन जो दिल में बात है वो रू-ब-रू करें


आओ कि एक दूसरे से गुफ़्तगू करें

दोनों के दिल ही चाक हैं मिलकर रफ़ू करें


चारो तरफ चमन में चलो रंग-ओ-बू करें

जिस मोड़ पर रुके थे वहीं से शुरू करें


पत्थर का ही अगर है हमारा खुदा भी तो

हम क्यूं पढ़ें नमाज़ बता क्यूं वज़ू करें


कुछ आप भी तो मेरी खबर लीजिये पवन

कब तक तलाश हम ही फ़क़त कू-ब-कू करें


                         ✍️ डॉ पवन मिश्र




Saturday, 30 January 2021

मुक्तक- जवानी

(शक्ति छंद आधारित मुक्तक)


अगर इंकलाबी कहानी नहीं,

लहू में तुम्हारे रवानी नहीं।

डराती अगर हो पराजय तुम्हें,

सुनो मित्र वो फिर जवानी नहीं।।


चलो यार माना बहुत खार हैं,

चमन जल रहा कोटि अंगार हैं।

मगर ये जवानी मिली किसलिए,

यही तो जवानी के श्रृंगार हैं।।


✍️ डॉ पवन मिश्र


Sunday, 24 January 2021

ग़ज़ल- आएंगे दिन ये याद अबीरो गुलाल के


आएंगे दिन ये याद अबीरो गुलाल के

चिठ्ठी के, गुल के, मखमली रेशम रुमाल के


दिल से जुड़ा है इसलिये चुभने का ख़ौफ़ है

रिश्ता ये कांच जैसा है रखना सँभाल के


क्या क्या लिखूं ग़ज़ल में बताए मुझे कोई

किस्से तमाम हैं तेरे हुस्नो जमाल के


कैसे यकीं दिलाएं तुम्हें चाहतों का हम

कह दो तो रख दें यार कलेजा निकाल के


पहलू में आके अब तो अता कर सुकूं मुझे

कब तक ये दिन बिताऊं मैं रंजो मलाल के


थोड़ा सा बाजुओं पे करो ऐतबार अब

कब तक करोगे फैसले सिक्के उछाल के


                               ✍️ डॉ पवन मिश्र





Friday, 8 January 2021

ग़ज़ल- मंज़िल तक बस वो ही जाने वाले थे


मंजिल तक बस वो ही जाने वाले थे

जिन पैरों में मोटे-मोटे छाले थे


आसमान भी उसकी ख़ातिर छोटा था

उम्मीदों के पंछी जिसने पाले थे


संसद के गलियारों में जाकर देखा

उजले कपड़े वाले दिल के काले थे


कैसे रखते बात गरीबों के हक की?

मुँह पे उनके चांदी वाले ताले थे


लौट पड़े चुपचाप उन्हीं की जानिब सब

ज़ख्मों से जो हमने तीर निकाले थे


मौत ज़हर से ही तो मेरी होनी थी

आस्तीन में सांप बहुत से पाले थे


                    ✍️ डॉ पवन मिश्र

Tuesday, 5 January 2021

ग़ज़ल- अपने होठों पे प्यास रहने दो


अपने होठों पे प्यास रहने दो

मीठे दरिया की आस रहने दो


मेरे साकी को पास रहने दो

हाथ में इक गिलास रहने दो


दर्द के सब असास रहने दो

बस यहीं आस-पास रहने दो


कुछ तो ख़ौफ़-ओ-हिरास रहने दो

टूटे दिल को उदास रहने दो


बेमज़ा हर खुशी बिना उनके

अब मुझे ग़म-शनास रहने दो


क्यूं कसैला बना रहे रिश्ता

थोड़ी सी तो मिठास रहने दो


हर किसी से करो न जिक्र मेरा

ख़ास रिश्ते को ख़ास रहने दो


बदहवासी में जी रहा हूँ मैं

उनको भी बे-हवास रहने दो


तीरगी से छिड़ी है जंग मेरी

हर दिया पास पास रहने दो


             ✍️ डॉ पवन मिश्र

असास= सामान

हिरास= निराशा

ग़म-शनास= दुःख को जानने वाला

बे-हवास= चेतना शून्य

तीरगी= अंधकार