Monday, 27 February 2017

ताटंक छन्द- आजाद

तम की काली रात लीलने, जो बिजली सा कौंधा था।
दम्भी अंग्रेजों को जिसने, मरते दम तक रौंदा था।।
लेकिन वो भी समझ न पाया, घात लगाए था भेदी।
क्रांति यज्ञ में आखिर उसने, आहुति प्राणों की दे दी।१।

भारत माँ का लाल अनोखा, अपनी धुन का मस्ताना।
वह आजाद सिंह शावक वह, आजादी का दीवाना।।
नमन उसे है आज हृदय से, नत है सम्मुख ये माथा।
भारत की धरती सदियों तक, गायेगी उसकी गाथा।२।
                             
                                              ✍डॉ पवन मिश्र
  

Sunday, 26 February 2017

ग़ज़ल- सिखा रहा चुनाव ये


मुफ़लिसों के चूल्हे भी जला रहा चुनाव ये।
बस्तियों में आग भी लगा रहा चुनाव ये।।

तिश्नगी में तख़्त के बदल रहे समीकरण।
दो ध्रुवों को देख लो मिला रहा चुनाव ये।।

अर्श वाले आ गये हैं वोट लेने फर्श पर।
गैरफ़ानी कुछ नहीं बता रहा चुनाव ये।।

मुन्कसिर वो हो गए जो चूर थे गुरूर में।
जाने क्या क्या और भी सिखा रहा चुनाव ये।।

अब गलेगी दाल यूँ न जातियों के नाम पर।
रहनुमा को आइना दिखा रहा चुनाव ये।।

                                   - डॉ पवन मिश्र

मुफ़लिस= गरीब          गैरफ़ानी= शाश्वत
मुन्कसिर= नम्र             रहनुमा= नेता

Saturday, 18 February 2017

ग़ज़ल- हमसे कितना प्यार करोगे


आँखों से ही वार करोगे।
या खुलकर इज़हार करोगे।।

अपने हुस्न के जलवों से तुम।
कितनों को बीमार करोगे।।

कोई तो हद, यार बता दो।
हमसे कितना प्यार करोगे।।

तरस रही है बगिया तुम बिन।
कब इसको गुलज़ार करोगे।।

स्वप्न अधूरे जो मेरे हैं।
तुम ही तो साकार करोगे।।

सारे शिक़वे यार भुला दो।
आख़िर कब तक रार करोगे।।

झूठे वादों के दम पर तुम।
कब तक ये व्यापार करोगे।।

            ✍ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 16 February 2017

मुक्तक- कहीं जीवन मरुस्थल सा


कहीं जीवन मरुस्थल सा, कहीं शबनम बरसती है,
कहीं प्रियतम की हैं बाहें, कहीं तन्हाई डसती है।
कहीं तो कृष्ण आकर रुक्मणी की मांग भर देता,
मगर तड़पे कहीं राधा, कहीं मीरा तरसती है।।

Friday, 10 February 2017

ग़ज़ल- झुग्गियाँ


कौन कहता शह्र को बस लूटती हैं झुग्गियाँ।
मुफ़लिसी में हो बशर तो थामती हैं झुग्गियाँ।।

आग की वो हो लपट या भुखमरी या बारिशें।
हर थपेड़े यार हँस के झेलती हैं झुग्गियाँ।।

दिन कटा है मुश्किलों में रात भी भारी मगर।
ख्वाब कितने ही तरह के पालती हैं झुग्गियाँ।।

कब तलक यूँ नींद में ही गुम रहेगा रहनुमा।
डोलता है तख़्त भी जब बोलती हैं झुग्गियाँ।।

वो सियासी रोटियों को लेके आये हैं इधर।
अधपकी उन रोटियों को सेंकती हैं झुग्गियाँ।।

वायदों की टोकरी से है भरी हर इक गली।
हर चुनावी दौर में ये देखती हैं झुग्गियाँ।।

                                ✍ डॉ पवन मिश्र

मुफ़लिसी= गरीबी            बशर= आदमी

Saturday, 4 February 2017

भक्तिमय दोहे


गजमुख लम्बोदर सुनो, आह्वाहन है आज।
विघ्न हरो हे गणपति, पूर्ण करो हर काज।१।

देवों के हो देव तुम, महादेव चंद्रेश।
उमापति हे शिव शम्भू , हर लो मन के क्लेश।२।

जानकीवल्लभ राघव, दशरथ सुत श्रीराम।
हाथ जोरि विनती यही, पुनि आओ इस धाम।३।

अनघ अजर हे पवनसुत, हे अंजनि के लाल।
पिंगकेश कपिश्रेष्ठ हे, दनुजों के तुम काल।४।

मुरलीधर माधव सुनो, विनती बारम्बार।
इस दुखिया को अब करो, भव सागर से पार।५।

                                       ✍डॉ पवन मिश्र
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नवगीत- आया जाड़ा हाड़ कँपाने


अँगड़ाई ले रही प्रात है,
कुहरे की चादर को ताने।
ओढ़ रजाई पड़े रहो सब,
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।

तपन धरा की शान्त हो गयी,
धूप न जाने कहाँ खो गयी।
जिन रवि किरणों से डरते थे,
लपट देख आहें भरते थे।
भरी दुपहरी तन जलता था,
बड़ी मिन्नतों दिन ढलता था।
लेकिन देखो बदली ऋतु तो,
आज वही रवि लगा सुहाने।
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।

गमझा भूले मफ़लर लाये,
हाथों में दस्ताने आये।
स्वेटर टोपी जूता मोजा,
हर आँखों ने इनको खोजा।
सैंडिल रख दी अब बक्से में,
हाफ शर्ट भी सब बक्से में।
अलमारी में टँगे हुए वो,
बाहर निकले कोट पुराने।
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।

लइया पट्टी मूँगफली हो,
ताजे गुड़ की एक डली हो।
गजक बताशे तिल के लड्डू,
भूल गए सब लौकी कद्दू।
मटर टमाटर गोभी गाजर,
स्वाद भरें थाली में आकर।
कड़क चाय औ गरम पकौड़ी,
जाड़े के हैं यार सयाने।
ओढ़ रजाई पड़े रहो सब,
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।

            ✍डॉ पवन मिश्र