Saturday, 21 November 2020

ग़ज़ल- ये नहीं के हम ही सकुचाये बहुत

 

ये नहीं के हम ही सकुचाये बहुत

वो भी हमको देख शरमाये बहुत


थम गए लब रू-ब-रू जब वो मिले

बात फिर नजरों ने की हाए बहुत


आरिज़-ओ-लब तक जब आये अश्क़ तो

उस घड़ी फिर याद तुम आये बहुत


हिचकियों ने मानों मरहम दे दिया

दर्द भूले ज़ख़्म, मुस्काये बहुत


ज़िंदगी भर ख़ार ही ढोये मगर

फूल मेरी कब्र पे आये बहुत


जब भी उसने साजिशन जुमले गढ़े

लोग उसकी बातों में आये बहुत


काफ़िले में यूँ तो थे साथी कई

रास लेकिन तुम हमें आये बहुत


                 ✍️ डॉ पवन मिश्र

Monday, 5 October 2020

ग़ज़ल- चंदन जैसे शीतल हो क्या


चंदन जैसे शीतल हो क्या
या पावन गंगाजल हो क्या

कब तक छाँव रखोगे मुझपर
मेरी माँ का आँचल हो क्या

नगर-नगर फिरते रहते हो
आवारा इक बादल हो क्या

प्रेम जिसे कहती है दुनिया
तुम भी उससे घायल हो क्या

दुनिया से टकराओगे तुम?
मेरे जैसे पागल हो क्या??

सांसों को महका जाते हो
पुरवाई हो? संदल हो क्या??

             ✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 1 October 2020

मुक्तक- हाथरस में घटी विभत्स घटना के सम्बंध में

 हाथरस में बालिका संग बलात्कार के बाद उसकी नृशंस हत्या और प्रशासन की भूमिका से उपजा मुक्तक...


बहुत उम्मीद थी तुमसे मगर क्या चल रहा साहेब ?

दिखावा है महज या फिर तुम्हें भी खल रहा साहेब ??

वहाँ जो रौशनी सी दिख रही है दूर खेतों में,

जरा तुम गौर से देखो वहाँ कुछ जल रहा साहेब।।

        

                                         ✍️ डॉ पवन मिश्र

                                     

          


Tuesday, 8 September 2020

ग़ज़ल- तेरा चहरा कमाल है साक़ी

 

तेरा चहरा कमाल है साक़ी

दूधिया इक हिलाल है साक़ी


एक तुझसे सवाल है साक़ी

दिल में कैसा मलाल है साक़ी


गर नशे का सबब ये मय है तो

फिर तिरा क्या कमाल है साक़ी


है सभी को ख़याल-ए-मैनोशी

मुझको तेरा ख़याल है साक़ी


चांद तारे चराग और जुगनू

सबमें तेरा जमाल है साक़ी


अपने दिल की कहूँ तुझे मैं क्या

तेरे जैसा ही हाल है साक़ी


रोज इक दर्द है नया मिलता

दर्द का ही ये साल है साक़ी


अब तो आकर सुकून दे जाओ

मेरा जीना मुहाल है साक़ी


                ✍️ डॉ पवन मिश्र


हिलाल= चांद

जमाल= खूबसूरती

ख़याल-ए-मैनोशी= शराब पीने का ख़याल


Sunday, 6 September 2020

ग़ज़ल- ढल गया जब शबाब से पानी


ढल गया जब शबाब से पानी

क्यूँ बहा तब नकाब से पानी


वक्त रहते अगर सँभल जाते

फिर न ढलता गुराब से पानी


इक छलावा है इश्क़ की दुनिया

कौन लाया सराब से पानी ??


तेरी आँखों में क्यूँ छलक आया?

आज मेरे जवाब से पानी


ये जो मोती रुके हैं पलकों पे

क्यूं है तेरे हिसाब से पानी?


उसकी रहमत पे शक नहीं करना

सबको देता हिसाब से पानी 


उसकी ग़ज़लों में कौन शामिल है?

बह रहा क्यूँ किताब से पानी 


ख़ार के साथ की सजा है ये

रिस रहा है गुलाब से पानी 


कोशिशें बन्द होंगी तब मेरी

जब मिलेगा तुराब से पानी


उसका आना पवन लगे है यूँ

जैसे बरसे सहाब से पानी


             ✍️ डॉ पवन मिश्र


गुराब= मान-सम्मान

सराब= मृगतृष्णा

तुराब= जमीन

सहाब= बादल

Sunday, 30 August 2020

ग़ज़ल- अबकी दिसम्बर में


बजी शहनाई तो टूटा भरम अबकी दिसम्बर में

बहुत रोई मेरी आँखें सनम अबकी दिसम्बर में


बहुत बेरंग, बेहिस और ठंडे हो गए रिश्ते

ये कैसा है तिरा मुझ पे सितम अबकी दिसम्बर में


लड़कपन छोड़ कर संजीदगी से पेश आओ तुम

हुए चालीस के तुम भी सनम अब की दिसंबर में


रदीफ़ो काफ़िया मिलते नहीं बेज़ार हैं मिसरे

बताओ क्या लिखे मेरी कलम अबकी दिसम्बर में


कुहासे की घनी चादर उमीदों का है सूरज गुम

खुदाया कर जरा कुछ तो करम अबकी दिसम्बर में


असर मेरी मुहब्बत का हुआ कुछ इस कदर उन पर

मेरी ज़ानिब चले उनके कदम अबकी दिसम्बर में


गुजरते साल की टीसें भुलाकर ख़्वाब-ए-नौ देखें

चलो खाते हैं हम ये ही क़सम अबकी दिसम्बर में


                                        ✍️ डॉ पवन मिश्र


बेहिस= असंवेदनशील

ख़्वाब-ए-नौ= नये ख़्वाब, नव स्वप्न

Sunday, 2 August 2020

ग़ज़ल- इस चमन का हर नज़ारा और है


इस चमन का हर नज़ारा और है।
मुस्कुराना पर तुम्हारा और है।।

चांदनी शब का सितारा और है।
यार तेरा गोशवारा और है।।

मखमली तकिया भी रक्खा है मगर।
तेरे काँधे का सहारा और है।।

कुछ न बोले बस झुका दी है नज़र।
अबकी आँखों का इशारा और है।।

ज़िंदगी में जबसे आई हो मेरी।
सच कहूँ हर सू नज़ारा और है।।

ज़र ज़मीं रुतबा तुम्हीं रक्खो हुज़ूर।
हम दिवानों का असारा और है।।

टूटकर जिनके लिए बिखरा था मैं।
उनकी रातों का सितारा और है।।

तुम जो चाहो तो ठहर जाओ यहीं।
मेरी कश्ती का किनारा और है।

बंदिशों में घिर गये हो यार तुम।
रास्ता अब तो तुम्हारा और है।।

ख़ुद के भीतर देखता हूँ आजकल।
दीद में मेरी नज़ारा और है।।

                         ✍️ डॉ पवन मिश्र

गोशवारा= कान का कुंडल
हर सू= हर तरफ
असारा= बंधन

Sunday, 19 July 2020

ग़ज़ल- दर्द-ओ-ग़म का ठौर-ठिकाना लगता है


दर्द-ओ-ग़म का ठौर-ठिकाना लगता है।
दिल का ज़ख्मों से याराना लगता है।।

जो भी मिलता है बेगाना लगता है।
आईना जाना-पहचाना लगता है।।

नजरें तो पल भर में मिलती हैं लेकिन।
कहते कहते एक जमाना लगता है।।

मेरे जीवन में तेरा होना हमदम।
सच बोलूं तो इक अफ़साना लगता है।।

हर दस्तक इक हूक उठाती है दिल में।
दरवाजे पर दोस्त पुराना लगता है।।

मुस्कानों में दर्द छुपाते हो तुम भी।
तेरा मेरा एक घराना लगता है।।

                         ✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday, 18 July 2020

गीत- हम शब्दों के जादूगर हैं


हम शब्दों के जादूगर हैं, जादू करने आये हैं।
निष्ठुर हिय हित प्रेम पुष्प की, पौध संग में लाये हैं।।
हम शब्दों के जादूगर हैं, जादू करने आये हैं।।

पलकों की सूखी कोरों को हम चाहें तो नम कर दें।
शब्दों के मरहम से मन की पीड़ाओं को कम कर दें।।
तपते मरुथल पर हमने रिमझिम सावन बरसाये हैं।
हम शब्दों के जादूगर हैं, जादू करने आये हैं।१।

छलक पड़े आँसू तो उनको पल भर में मोती कर दें।
जीवन का नैराश्य मिटाकर आशाओं से हम भर दें।।
अँधियारे से लड़ने देखो कितने जुगनू लाये हैं।
हम शब्दों के जादूगर हैं, जादू करने आये हैं।२।

भौरों का गुंजार सुनाया कांटो का प्रतिकार किया।
एकाकी विरहन को हमने शब्दों का संसार दिया।।
हमने ही तो गीत मिलन के इन कण्ठों से गाये हैं।
हम शब्दों के जादूगर हैं, जादू करने आये हैं।३।
 
                                       ✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday, 28 June 2020

ग़ज़ल- मैं वंचित की बात करूंगा


महबूबा पर गीत लिखो तुम चाहे चांद सितारों पर।
मैं वंचित की बात करूंगा, लिक्खूंगा सरकारों पर।।

लोकतंत्र का भार टिका है झूठे और मक्कारों पर।
मंडी में बिक जाने वाले रँगे-पुते अखबारों पर।।

नेताओं को नैतिकता का पाठ पढ़ाने से पहले।
बोलो तुमने कितनी बारी सर फोड़ा दीवारों पर??

कल तक गाली देते थे जो पानी पी पी वेदों को।
वेदशक्ति अब बेच रहे हैं नजर टिकी बाजारों पर।।

आपस में कर लीं गलबहियां देखो सारे चोरों ने।
जिम्मेदारी अब ज्यादा है घर के चौकीदारों पर।।

सागर की नादां लहरों को शायद अब ये भान नहीं।
मझधारों ने दम तोड़ा है लकड़ी की पतवारों पर।।

बगिया में सुंदर फूलों हित नियम बदलने ही होंगे।
कब तक जाया होगी मिहनत केवल खर-पतवारों पर।।

राहे इश्क़ बहुत पेंचीदा, हर पग मुश्किल है लेकिन।
आओ थोड़ा चलकर देखें दोधारी तलवारों पर।।

✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 4 June 2020

ग़ज़ल- ख्वाहिशों में कैद है


ख्वाहिशों में कैद है वो बेड़ियों में कैद है।
आदमी खुद की बनाई उलझनों में कैद है।।

राह की मुश्किल का हल तो हौसलों में कैद है।
और मंज़िल का पता तो कोशिशों में कैद है।।

मुन्तज़िर चातक झुलसता तिश्नगी की आग में।
और चातक की मुहब्बत सीपियों में कैद है।।

शह्र में मजदूर नें चादर जुटा ली है मगर।
गांव में होरी अभी भी मुश्किलों में कैद है।।

लोकशाही में सभी के अपने-अपने झुंड हैं।
सुब्ह का अख़बार भी पूर्वाग्रहों में कैद है।।

सिगरटों का है धुँआ और शोर ढपली का बहुत।
क्रांति का नवरूप है ये तख्तियों में कैद है।

गीत गज़लो छंद की रसधार अब कैसे बहे?
मंच पर साहित्य ही जब चुटकुलों में कैद है।।

                                   ✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 14 May 2020

ताटंक छंद


कुंठा है या दोष उम्र का, या मदिरा की माया है।
राष्ट्रवाद की परिभाषा जो, अब तक समझ न पाया है।
सौ करोड़ इंसानों को पशु, आखिर क्यों बतलाया है।
दृष्टिदोष है या शैतानी, सिर पर कोई साया है।।

                                       ✍ डॉ पवन मिश्र

Sunday, 19 April 2020

अप्प दीपो भव- कोरोना संकट काल

अप्प दीपो भव

          आइये, आज आप सबको एक कहानी सुनाता हूँ, एक सत्य घटना। कोरोना संकट और इस लॉकडाउन से उपज रहे भय और नैराश्य के वातावरण में इसकी महती आवश्यकता भी है। आज जब लॉक डाउन में हम सभी घरों में हैं। तो धीरे धीरे विचारों में एक शून्यता हावी होती जा रही है। यदि हमारे बच्चे या अन्य परिवारी जन किसी कारण वश कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर किसी और शहर में फँस गए हैं तो एक अजीब सी हताशा और घबराहट मन मे पनपने लग रही है।
     कहानी है मानसी सारस्वत की। १९ वर्षीया यह बेटी यूँ तो मूलरूप से कानपुर, उ0प्र0 की निवासी है लेकिन शिक्षा ग्रहण की दृष्टि से गत २ वर्षों से कनाडा में है। इनके पिता संजय सारस्वत जी, जो कि पं0 दीनदयाल विद्यालय, कानपुर के छात्र रहे हैं, वो वर्तमान में मुंबई में कार्यरत हैं।
  कोरोना संकट के कारण लॉक डाउन की घोषणा और फिर हवाई जहाजों की उड़ानों के निरस्तीकरण के कारण मानसी कनाडा से भारत नहीं आ पाईं। जिस हॉस्टल में मानसी रहती थी, वो खाली करा लिया गया था। लेकिन माता-पिता से कोसों दूर, दूसरे देश में बिल्कुल अकेले होते हुए भी मानसी घबराई नहीं। उसने अकेले ही प्रयास पूर्वक पहले अपने रहने का प्रबंध किया और फिर अपनी पूरी सकारात्मक ऊर्जा को यह विचार करने में लगा दिया कि इस संकट काल में वह दूसरे लोगों की क्या और कैसे सहायता कर सकती है ?
  उसने निर्णय लिया कि वो अपने स्तर से धन संग्रह करेगी और अपने पैतृक जनपद कानपुर के कम से कम १५ ऐसे असहाय परिवारों के लिये पूरे महीने के राशन की व्यवस्था करेगी, जिनकी आजीविका का साधन इस लॉक डाउन के कारण छिन गया है। जो रोज पानी पीने के लिये रोज ही कुंआ खोदते थे। इस दिशा में उसने प्रयास प्रारम्भ किये, एक प्रकल्प प्रारम्भ किया, मिशन सहारा।
 अपने पिता से चर्चा के बाद जमीन पर इस योजना को मूर्त रूप देने के लिये युगभारती संस्था से सम्पर्क किया, जो पूर्व से ही ऐसे परिवारों को चिन्हित कर राशन वितरण का कार्य नियमित रूप से कर रही थी। नव-शक्ति का संचार हुआ और युगभारती आज मानसी जी के प्रयासों को अमली जामा पहनाते हुए उन परिवारों तक राशन पहुंचाने का कार्य कर रही है। आज मिशन सहारा और युगभारती संस्था ऐसे जरूरतमंद परिवारों के मासिक राशन व्यवस्था हेतु कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रही है।
             इस पूरी कहानी को साझा करने के पीछे मन्तव्य मात्र यह है कि सोचिये एक लड़की जो अपने परिवार से, अपने देश से कोसों दूर है, अकेली है, जिसका हॉस्टल भी बन्द हो गया है। हम और हमारे बच्चों की तरह ही लॉक डाउन में बन्द है। लेकिन उसने स्वयं पर न तो किसी भय को हावी होने दिया न लूडो, कैरम या यूट्यूब के शोर में खुद को गुम कर लिया। उसकी भीतरी शक्ति और परिवार के संस्कार ने इस संकट काल से उसे मजबूती से लड़ने की प्रेरणा दी और आज वो पूरे समाज के लिये एक प्रेरणा बनकर उभरी है।
 क्या हम सब ये नहीं कर सकते? क्या हमारे बच्चे ऐसा प्रयास नहीं कर सकते ? आवश्यकता स्वयं की अंतर्निहित शक्तियों को पहचानने की है। तय हमें करना है कि इस संकटकाल में हमारा चरित्र किस प्रकार से उभर कर आये और विचार करें कि हम अपने समाज के लिये क्या कर सकते हैं? सिर्फ सरकारों के माथे सारी जिम्मेदारी छोड़कर चादर तान लेंगे तो से यह काल राष्ट्र और मानवता की दृष्टि से और भयावह ही होता जाएगा।
  हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः। तो आइए कोरोना विषाणु तंतु से युद्ध में हम सभी एक दूसरे के साथ पूरी मजबूती से खड़े हों। वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना को पुस्तकों से बाहर निकाल यथार्थ की जमीन पर जीने का समय है ये। सर्वे भवन्तु सुखिनः और ॐ सहनाववतु, सहनौभुनक्तु के परिपालन का काल है ये। उदाहरण बनने की शुरुआत हमें अपने से ही करनी होगी। तभी हम दूसरों को प्रेरित कर एक सूत्र में बांध पाएंगे....
           
                तीरगी में गर उजाला चाहिये।
                बन के जुगुनू जगमगाना चाहिये।।
     
                                     ✍डॉ पवन मिश्र
                                        कानपुर, उ0प्र0

Thursday, 9 April 2020

कुण्डलिया- कोरोना


जगतपिता से प्रार्थना, करूँ आज करजोर।
तम कोरोना का मिटे, दिखे सुहानी भोर।।
दिखे सुहानी भोर, न ऐसी विपदा आवे।
कृपा करो करतार, महामारी मिट जावे।
त्राहि त्राहि कर लोग, हुए आकुल चिंता से।
करे पवन अरदास, विधाता-जगतपिता से।१।

कोरोना है मानता, बस ये ही अनुबंध।
सामाजिक दूरी रखो, घर को कर लो बन्द।
घर को कर लो बन्द, गर्म पानी ही पीना।
गांठ बांध लो बात, संयमित जीवन जीना।
कहे पवन कविराय, हाथ साबुन से धोना।
लापरवाही छोड़, मिटेगा तब कोरोना।२।

कोरोना के कोढ़ में, लगा ख़ाज का रोग।
भारत को छलने लगे, कुछ षडयंत्री लोग।।
कुछ षडयंत्री लोग, वायरस के जो वाहक।
मानवता पर आज, थूकते ये नालायक।।
किया संक्रमित देश, देश का हर इक कोना।
चिंतित है सरकार, मिटे कैसे कोरोना।३।

सारा जग बेहाल है, कोरोना विकराल।
कठिन समस्या बन गया, संकट का यह काल।।
संकट का यह काल, लीलता मानव जीवन।
त्रस्त सभी हैं आज, धनी हो या हो निर्धन।
लेकिन दृढ़ विश्वास, छँटेगा ये अँधियारा।
कोरोना से मुक्त, शीघ्र होगा जग सारा।४।

                             ✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday, 16 February 2020

ग़ज़ल- समंदर चीरने वाला ही तो साहिल से मिलता है


बताओ क्या कोई काहिल कभी मंजिल से मिलता है ?
समंदर चीरने वाला ही तो साहिल से मिलता है।।

यहां बेताबियां बेदारगी बेशक मिले लेकिन।
मुहब्बत में सुकूं यारों बड़ी मुश्किल से मिलता है।।

नहीं रहता है अब वो मुत्मइन मेरे नजरिये से।
वो शायद आजकल मेरे किसी मुकबिल से मिलता है।।

निगाहें उसकी कातिल हैं सबब हमको पता लेकिन।
करें क्या हम सुकूं हमको उसी कातिल से मिलता है।।

दिखावा कर नहीं पाता नवाज़िश का किसी से भी।
पवन जिससे भी मिलता है हमेशा दिल से मिलता है।।

                                            ✍️ डॉ पवन मिश्र

मुत्मइन= सहमत
मुकबिल= विरोधी

ग़ज़ल- सत्य हूँ और आंख का पानी हूँ मैं


सत्य हूँ और आँख का पानी हूँ मैं।
यूँ समझिये फ़ैज़-ए-रूहानी हूँ मैं।।

ब्रह्म हूँ, कैसे मिटा पाओगे तुम।
आत्म हूँ मैं लफ़्ज लाफ़ानी हूँ मैं।।

इस अधूरे इश्क़ की मैं क्या कहूँ ?
वो शनावर और तुग़्यानी हूँ मैं।।

ज़िद पे आया तो बहा ले जाऊंगा।
आँख में ठहरा हुआ पानी हूँ मैं।।

पेचोख़म कैसे भी हों, पर्वा नहीं।
बचपना हूँ एक नादानी हूँ मैं।।

क्यूं अँधेरों में पुकारूँ हर दफा।
उस खुदा का ही तो ताबानी हूँ मैं।।

ज़र-ज़मीं कुछ भी न मैं ले जाऊंगा।
बे-सरो-सामान सैलानी हूँ मैं।।

                  ✍️ डॉ पवन मिश्र

फ़ैज़-ए-रूहानी= आध्यात्म से मिलने वाला लाभ
लाफ़ानी= अमर, शाश्वत
शनावर= कुशल तैराक
तुग़्यानी= बाढ़, सैलाब
पेचोख़म= जटिलता
ताबानी= नूर, प्रकाश
सैलानी= यात्री