तुझे ही याद रखने की मुसीबत जानकर पाली।
कभी तू भी ज़रा तो देख मेरी आँख की लाली।।
यहाँ के रहनुमा अब चाहते शागिर्द ऐसे हों।
समझ में कुछ न आये पर बजा दे हाथ से ताली।
न जाने किसने घोला है फ़िज़ाओं में ज़हर इतना।
सभी के हाथ में खंजर जुबां पे है धरी गाली।।
गरीबों की रसोई का रहे अक्सर यही आलम।
कभी हैं लकड़ियां गीली कभी भण्डार है खाली।
पवन को ऐ मेरे मौला फ़क़त ये ही अता करना।
न तपते दिन यहां पे हों न रातें हो कभी काली।।
-डॉ पवन मिश्र
No comments:
Post a Comment