ऐ खुदा अहसान तेरा मानता हूँ।
ये खियाबां हो इरम मैं चाहता हूँ।।
दफ़्न कर दो सारे शिकवे दरमियां के।
सिलसिला बातों का फिर से मांगता हूँ।।
कोरे कागज़ पे लिखा हर भाव उसने।
उसकी आँखों की ही भाषा बांचता हूँ।।
इश्क का दरिया उफनता जा रहा है।
शौक कुछ ऐसे ही तो मैं पालता हूँ।।
दौर है मुश्किल मगर थोड़ा सँभलना।
इस अदावत की वजह मैं जानता हूँ।।
हाथ में झंडे लिये काफ़िर खड़े हैं।
भीड़ की सच्चाई मैं पहचानता हूँ।।
कुछ नहीं है और ख्वाहिश अब पवन की।
जेब खाली करके खुशियाँ बांटता हूँ।।
-डॉ पवन मिश्र
खियाबां= बाग़, इरम= जन्नत
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