सियासत छोड़ कर घाटी सँवारें।
मेरे कश्मीर को ग़म से उबारें।।
छुपे किरदार जो दाढ़ी के पीछे।
तकाज़ा वक्त का उनको नकारें।।
फ़िज़ाओं में है बस बारूद फैला।
हुई काफ़ूर शबनम की फुहारें।।
मिटाये बाग़ जब खुद बाग़बाँ ही।
मदद की चाह में किसको पुकारें।।
लहू की फ़स्ल जब से बो रहे वो।
ख़िजाँ हावी हुई गुम हैं बहारें।।
भटकना छोड़ कर मोमिन मेरी सुन।
चलो केशर की क्यारी फिर सँवारें।।
✍ डॉ पवन मिश्र
ख़िजाँ= पतझड़
मोमिन= मुस्लिम युवक
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