Monday, 28 October 2024

ग़ज़ल- अभी यह उन्स है प्यारे मुहब्बत दूर है तुमसे

अभी यह उन्स है प्यारे मुहब्बत दूर है तुमसे

अक़ीदत तक नहीं पहुँचे इबादत दूर है तुमसे


फ़क़त दो-चार दिन में छोड़ दें कैसे तकल्लुफ़ हम

अभी तारीफ़ ही ले लो शिकायत दूर है तुमसे


मेरे हमदम जरा सी दिल्लगी में रूठ जाते हो

तो इसके ये मआनी हैं ज़राफ़त दूर है तुमसे


सियासत में तुम्हे माना बुलंदी मिल गई लेकिन

अभी इंसानियत की यार रिफ़अत दूर है तुमसे


ये मेरा तजरिबा है ज़िंदगी का दोस्तों मानो

अगर माँ-बाप सँग हैं तो मुसीबत दूर है तुमसे


अभी तक तुम पवन पहुँचे रदीफ़-ओ-काफिया तक ही 

ग़ज़लगोई नहीं आसां लताफ़त दूर है तुमसे


✍️ डॉ पवन मिश्र


उन्स= लगाव, आकर्षण

अक़ीदत= श्रद्धा

तकल्लुफ़= औपचारिकता

ज़राफ़त= हँसी मज़ाक के प्रति समझ/अक्लमंदी

रिफ़अत= उत्कृष्टता, ऊंचाई

लताफ़त= ख़ूबी

ग़ज़ल- बताओ अक्स किसका है

चमकते चांद-तारों में बताओ अक्स किसका है

ये शबनम की फुहारों में बताओ अक्स किस का है


पहाड़ों और गारों में बताओ अक्स किसका है

वो गिरते आबशारों में बताओ अक्स किसका है


समंदर में किनारों में बताओ अक्स किसका है

नदी के बहते धारों में बताओ अक्स किसका है


गुलों में और ख़ारों में बताओ अक्स किसका है

चमन की इन बहारों में बताओ अक्स किसका है


चरागों में शरारों में बताओ अक्स किसका है

हर इक आईने में यारों बताओ अक्स किसका है


ख़ुदा का नूर ही है जो किये रौशन जहां सारा

नहीं तो इन नज़ारों में बताओ अक्स किसका है


✍️ डॉ पवन मिश्र


आबशारों= झरना

Thursday, 24 October 2024

ग़ज़ल- कोई प्यासा ही था जिसने नदी ईजाद की होगी

कोई प्यासा ही था जिसने नदी ईजाद की होगी

ग़मों से लड़ रहा होगा खुशी ईजाद की होगी


तसव्वुर में किसी के हर घड़ी महबूब ही होगा

तभी उसने कसम से बंदगी ईजाद की होगी


किसी प्यासे या प्रेमी ने किसी मुफ़लिस या राजा ने

भला किसने यहां बादा-कशी ईजाद की होगी


हवा-पानी, कड़कती धूप से बेज़ार होकर ही

किसी ने एक सुंदर झोपड़ी ईजाद की होगी


बशर कैसे उसे कह दूँ, फ़रिश्ता ही रहा होगा

कि जिसने इस जहाँ में दोस्ती ईजाद की होगी


✍️ डॉ पवन मिश्र


बादा-कशी= मदिरापान

Tuesday, 22 October 2024

ग़ज़ल- लेकिन शोर न हो

आह-ओ-फ़ुग़ाँ फ़रियाद सभी तुम कह दो लेकिन शोर न हो

अपनी चुप्पी मुझ तक आकर तोड़ो लेकिन शोर न हो


रहने दो दुनियावी नाज़ो नख़रे और तअल्ली सब

दिल की बातें कहनी हो तो कह दो लेकिन शोर न हो


रस्मों और रिवाज़ों के सारे बंधन ठुकराकर तुम

जब चाहो मुझसे मिलने आ जाओ लेकिन शोर न हो


रात जवां है, मैं हूँ, तुम हो, चांद-सितारे, सब तो हैं

अपना सर मेरे ज़ानू पे रक्खो लेकिन शोर न हो


हिज़्र उदासी तन्हाई बेचैनी सारे ग़म लेकर

दीवानों, तुमको तो हक़ है, तड़पो, लेकिन शोर न हो


✍️ डॉ पवन मिश्र


आह-ओ-फ़ुग़ाँ= विलाप

तअल्ली= डींग मारना

ज़ानू= गोद

Sunday, 20 October 2024

ग़ज़ल- आईने में क्या बनाया जा रहा है

आईने में क्या बनाया जा रहा है

हू-ब-हू तुम सा बनाया जा रहा है


आंख केवल है ज़रीआ यार मेरे

दिल तलक रस्ता बनाया जा रहा है


यादों का नश्तर उठाकर हर घड़ी बस

ज़ख्म-ए-दिल गहरा बनाया जा रहा है


रील्स जबसे आ गईं मोबाइलों में

हुस्न को सस्ता बनाया जा रहा है


नाम पर जम्हूरियत के रफ़्ता-रफ़्ता

भीड़ को अंधा बनाया जा रहा है


क्रूरता को छांव देने के लिये

धर्म को मुद्दा बनाया जा रहा है


✍️ डॉ पवन मिश्र

ग़ज़ल- जिंदगी में वो मेरे रंग-फ़िशानी देगा

जिंदगी में वो मेरे रंग-फ़िशानी देगा

पास बैठेगा मुझे शाम सुहानी देगा


ख़ुश्क जज़्बात को वो आब-रसानी देगा

मेरी गज़लों को मेरा यार रवानी देगा


अपने पहलू में मुझे देगा सुकूँ वो यारों

और शेरों को मेरे रूह-म'आनी देगा


उसका होना ही चमक देता है नज़रों को मेरी

ये ज़माना तो महज आंखों को पानी देगा


तू ने भी मान लिया है जो मुझे मुज़रिम तो

फिर बता कौन मेरे हक़ में बयानी देगा


घर की तुलसी की नहीं कद्र यहां जब यारों

तो बबूलों को भला कौन मकानी देगा


✍️ डॉ पवन मिश्र


आब-रसानी= पानी पहुँचाना


Saturday, 19 October 2024

ग़ज़ल- अब मुझको मगहर जाना है

मुझको अपने घर जाना है

अब मुझको मगहर जाना है


मंदिर मस्ज़िद घूम लिये सब

अब खुद के भीतर जाना है


राम रमापति जपते-जपते

भवसागर से तर जाना है


दुनिया में बस नाम बचेगा

ज़िस्म सभी का मर जाना है


रंग-ओ-बू पर इतराना क्यों

इक दिन सब कुछ झर जाना है


✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 17 October 2024

ग़ज़ल- मस्त-क़लन्दर ढूंढ रहा हूँ

मस्त-क़लन्दर ढूंढ रहा हूँ

खुद के भीतर ढूंढ रहा हूँ


फूलों से अब डर लगता है

पत्थर में घर ढूंढ रहा हूँ


ढेरों पुस्तक पढ़ डाली हैं

ढाई आखर ढूंढ रहा हूँ


पर्वत-पर्वत बस्ती-बस्ती

अपना मगहर ढूंढ रहा हूँ


तिश्ना-लब की ख़ातिर यारों

एक समुंदर ढूंढ रहा हूँ


सर के साथ ढके पैरों को

ऐसी चादर ढूंढ रहा हूँ


✍️ डॉ पवन मिश्र

Wednesday, 9 October 2024

ग़ज़ल- कभी आना तो अपने साथ गुड़-धानी लिए आना

कभी आना तो अपने साथ गुड़-धानी लिए आना

हमारी तिश्नगी के वास्ते पानी लिए आना


गए हो छोड़कर जबसे बहुत गहरा अँधेरा है 

अगर आना इधर तो यार ताबानी लिए आना


मैं तिनका ही सही लेकिन सहारा अंत तक दूंगा

परखना हो अगर तो आप तुग्यानी लिए आना


मिलेंगे, साथ बैठेंगे, निकालेंगे कोई रस्ता

सुनो हमदम तुम अपनी हर परेशानी लिए आना


किसी बच्चे से मिलना तो भुला देना जवां हो तुम

मेरी ख़ातिर भी उससे एक नादानी लिए आना


✍️ डॉ पवन मिश्र

ताबानी- प्रकाश

तुग्यानी- बाढ़

Monday, 7 October 2024

ग़ज़ल- बात बाज़ार तक नहीं पहुंची

बात अख़बार तक नहीं पहुंची

बीच बाज़ार तक नहीं पहुंची


प्यास हद पार तक नहीं पहुंची

उनके रुख़सार तक नहीं पहुंची


आह तड़पी मेरी बहुत लेकिन

मेरे ग़मख़्वार तक नहीं पहुंची


जिंदगी फँस गयी किताबों में

ज्ञान के सार तक नहीं पहुंची


पैरहन तक तो आ गयी दुनिया

किंतु किरदार तक नहीं पहुंची


कोशिशें तो बहुत हुईं लेकिन

नींद बेदार तक नहीं पहुंची


जिंदगी रोज चल रही लेकिन

एक इतवार तक नहीं पहुंची


कह तो ली है मगर ग़ज़ल शायद

अपने मेआ'र तक नहीं पहुंची


✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 22 August 2024

गीत- चरखे ने आजादी दे दी, ये कहना बेमानी है

चरखे ने आजादी दे दी ये कहना बेमानी है।

क्रांति यज्ञ में आहुतियों की ये तो नाफ़रमानी है।।


भारत की जनता को जो पैरों से रौंदा करते थे।

निर्ममता की हदें पार कर, भुस खालों में भरते थे।।

अठ्ठारह के खुदीराम को, फांसी पर लटका डाला।

जलियावाला बाग घेरकर, लोगों को मरवा डाला।।

बहन-बेटियों की इज्जत का, मान नहीं जो रखते थे।

छुद्र वासना से हटकर कुछ, भान नहीं जो रखते थे।।

पेड़ों से लाशें लटका कर, अनुशासन जो गढ़ते थे।

लाठी, तोप-तमंचों की जो भाषा बोला करते थे।।

उन दुष्टों का पापी घट क्या, सहलाने से फूट गया ?

अंग्रेजों का दमनचक्र क्या, सत्याग्रह से टूट गया ??

यदि ऐसा तुम सोच रहे तो, सच में ये नादानी है।

चरखे ने आजादी दे दी, ये कहना बेमानी है।१।


बैरकपुर से ज्वार उठा था, तब थर्राया था लंदन।

वंदे का जब स्वर गूंजा था, तब घबराया था लंदन।

लक्ष्मीबाई की तलवारों ने जब चमक बिखेरी थी।

भारत के चप्पे चप्पे से, गूंजी जब रणभेरी थी।।

जब काला पानी ने आजादी का मंत्र पुकारा था।

जब तिलक गोखले अरबिंदो ने गोरों को ललकारा था।।

जब बिस्मिल सुभाष शेखर ने, अंग्रेजों का मद तोड़ा।

जब बहरों पर भगत सिंह ने, इंकलाब का बम फोड़ा।।

तब जाकर आई आजादी, भारत के दुर्दिन बीते।

कैसे कह दूं मात्र अहिंसा से अंग्रेजी घट रीते।।

किसी एक को नायक कहना, सत्य नहीं मनमानी है।

चरखे ने आजादी दे दी, ये कहना बेमानी है।२।


क्रांति यज्ञ में लाखों आहुतियों से ज्वाला धधकी थी।

आजादी के नवप्रभात की रश्मिकिरण तब चमकी थी।।

चंपारण भी उसी यज्ञ हित आहुति लेकर आया था।

उसने भी स्वातंत्र्य समर में, जौहर खूब दिखाया था।।

उनके सम्मुख नत है माथा, कोटि-कोटि अभिनन्दन है।

अंतस से उनको अभिवादन, उनका शत-शत वन्दन है।।

लेकिन वो भी उस माला के इक मोती जैसे ही थे।

लाखों माओं के सुत जिसमें, आपस में थे गुथे हुवे।।

कुत्सित राजनीति ने लेकिन अपना रंग दिखा डाला।

सत्ता हित महिमा-मंडन का सारा खेल रचा डाला।।

आजादी के पुण्य यज्ञ की ये तो नाफ़रमानी है।

चरखे ने आजादी दे दी ये कहना बेमानी है।३।


अनगिन बलिदानों के फलतः दिन आजादी का आया।

लेकिन क्यों गौरव गाथा में नाम एक का ही छाया।।

अंतस से अभिनन्दन उनका, शत-शत बार प्रणाम उन्हें।

लेकिन क्यों आवश्यक देना, राष्ट्रपिता का नाम उन्हें।।

माना इक कुटुंब के जैसे, भारत का परिवार बना।

आजादी के बाद प्रगति का, माना वो आधार बना।।

सूखे वृक्षों पर वर्षा में, नव पल्लव ज्यों खिलते हैं।

वैसे ही परिवार सृजन में, नव सम्बन्धी मिलते हैं।।

लेकिन चाचा और पिता का, क्यों बोलो बस नाम बढ़ा।

आखिर क्यों तब ताऊ-फूफा, मामा-बेटा नहीं गढ़ा।।

केवल श्रेय हड़पने की ये कोरी कारस्तानी है।

चरखे ने आजादी दे दी ये कहना बेमानी है।४।


✍️ डॉ पवन मिश्र

Wednesday, 14 August 2024

ग़ज़ल- अना को ओढ़कर रक्खा हुआ है

अना को ओढ़कर रक्खा हुआ है

दिखावे में बशर उलझा हुआ है


कभी क्या आईने से गुफ़्तगू की ?

कभी खुद से भी क्या मिलना हुआ है ?


रक़ीबों की सजी थी रात महफ़िल

हमारा रात भर चर्चा हुआ है


तुम्हारे बिन हमारी ज़िंदगी में

बताएं क्या तुम्हें क्या क्या हुआ है 


छुड़ाकर हाथ तुम ही तो गए थे

पवन तो आज भी ठहरा हुआ है


✍️ डॉ पवन मिश्र

Tuesday, 13 August 2024

ग़ज़ल- यादों के नश्तर नुकीले हो गए

यादों के नश्तर नुकीले हो गए

रेशमी रूमाल गीले हो गए


हाथ पर मेंहदी रचा कर आज वो

देख लो कितने रँगीले हो गए


कल तलक सब कुछ मधुर था दरमियाँ

आज हम कड़वे-कसीले हो गए ?


हद हरिक कमतर हमें लगने लगी

इश्क में जब से हठीले हो गए


सुर्ख़रू लब उनके छूकर ऐ पवन

होंठ मेरे भी रसीले हो गए


✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday, 8 August 2024

गीत- राम विश्वास हैं

राम विश्वास हैं, पुण्य एहसास हैं।

घोर नैराश्य में राम ही आस हैं।।


भक्ति भी राम हैं, युक्ति भी राम हैं।

प्रेम का पाश भी, मुक्ति भी राम हैं।।

जिसपे घूमें धरा वो धुरी राम हैं।

राम गति में भी हैं, राम विश्राम हैं।।

राम त्यौहार हैं, राम उल्लास हैं।

घोर नैराश्य में राम ही आस हैं।१।


प्रेम का व्याकरण, आचरण राम हैं।

राम अंतस भी हैं, आवरण राम हैं।।

राम साकार हैं, भक्ति का सार हैं।

इस सकल सृष्टि का, राम आधार हैं।।

राम तृण से भी लघु, राम आकाश हैं।

घोर नैराश्य में, राम ही आस हैं।२।


भावना राम हैं, प्रार्थना राम हैं।

कामना राम हैं, साधना राम हैं।।

नाव भी राम हैं, राम पतवार हैं।

राम ही हैं खिवैय्या वही धार हैं।।

राम पावस, शिशिर, राम मधुमास हैं।

घोर नैराश्य में, राम ही आस हैं।३।


इस चराचर जगत का वो अस्तित्व हैं।

राम कण-कण में हैं, राम विभु तत्व हैं।।

मैं निहारूँ जहाँ राम ही राम हैं।

राम की छवि सुगढ़, राम अभिराम हैं।।

अश्रुओं की घड़ी में मधुर हास हैं।

घोर नैराश्य में राम ही आस हैं।४।


✍️ डॉ पवन मिश्र


ग़ज़ल- तेरी यादों का जो नश्तर रखा है

तेरी यादों का जो नश्तर रखा है
समय के साथ पैना हो रहा है

महज़ गम ही हमारे साथ रहते
उन्हीं से रह गया बस वास्ता है

उदासी, हिज़्र, उलझन, यास, आँसू
मुहब्बत में यही मुझको मिला है

किसी दिन रोशनी से बात होगी
इसी उम्मीद पे जीवन टिका है

बड़ी शिद्दत से मेरी चाहतों ने
तुम्हारा ही महज़ सज़दा किया है

जब आओगे तभी गुलशन खिलेगा
बहारों ने यही मुझसे कहा है

✍️ डॉ पवन मिश्र

यास- अवसाद

ग़ज़ल- फ़क़त गहरा अँधेरा जा-ब-जा है

फ़क़त गहरा अँधेरा जा-ब-जा है
मुख़ालिफ़ हो गया हर रास्ता है

सदाकत तो खड़ी है दूर तन्हा
मगर झूठों का लम्बा काफ़िला है

सियासत ने पढ़ाया पाठ जबसे
सभी की आँख पर चश्मा चढ़ा है

नहीं है इश्क़ तो इनकार कर दो
ये चुप्पी तो मेरी ख़ातिर सजा है

दिये ने हौसला जबसे दिखाया
हवाओं से बखूबी लड़ रहा है

महज़ कोशिश से ही मंज़िल मिलेगी
पवन की ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है

✍️ डॉ पवन मिश्र

जा-ब-जा= हर जगह
मुख़ालिफ़= विरोधी

Wednesday, 10 July 2024

लेख- डिजिटल उपस्थिति और शिक्षक विरोध

डिजिटल उपस्थिति और शिक्षक विरोध-


वर्तमान में बेसिक शिक्षा विभाग, उत्तर प्रदेश के द्वारा शिक्षकों की उपस्थिति हेतु जारी किए गए एक फरमान की सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक बहुत चर्चा है। विषय शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति का है। एक तरफ शिक्षक इस आदेश को अव्यवहारिक बताते हुए विरोध में लामबंद हैं तो दूसरी तरफ प्रशासन स्वयं को सही साबित करने में लगा है। मीडिया और जन सामान्य का एक तबका इसे शिक्षकों की हठधर्मिता से जोड़कर देख रहा है, प्रचारित किया जा रहा है कि शिक्षक समय से विद्यालय नहीं आते इसीलिये डिजिटल उपस्थिति का विरोध कर रहे हैं। 

          एक शिक्षक होने के नाते इस लेख के माध्यम से मैं शिक्षकों के पक्ष को बिंदुवार स्प्ष्ट करने का प्रयास रहा हूँ। यहाँ यह समझना अति आवश्यक है आखिर शिक्षक क्यों इस आदेश को अव्यवहारिक कह रहे हैं ?

1) पहला और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिस वेब पोर्टल के माध्यम से शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति की  बात हो रही है वह तकनीकी रूप से बेहद पंगु है। उसी पोर्टल के माध्यम से गत कई वर्षों से छात्रों के नामांकन आदि की प्रक्रिया शिक्षकों द्वारा की जा रही है। ढेरों उदाहरण देखने को मिलते हैं कि अमुक छात्र का नामांकन आज पोर्टल पर कर दिया गया लेकिन कई दिनों तक वह प्रदर्शित नहीं होता। आप नामांकन दो बार कीजिये, तीन बार कीजिये लेकिन परिणाम वही, 'ढाक के तीन पात।' हालांकि कई बार दो-तीन दिन में नाम पटल पर दिखने भी लगते हैं। यही हाल उस ऐप का भी है जिसके जरिये शासन/प्रशासन बेसिक शिक्षा को डिजिटल भारत की दौड़ का हिस्सा बनाना चाहता है। ऐप के मुख्य पृष्ठ पर घूमता चक्र आपके धैर्य की परीक्षा लेता रहता है। शासन द्वारा उपलब्ध कराए गए टेबलेट की गुणवत्ता का अंदाजा भी लेख के पाठक आसानी से लगा सकते हैं। कुछ शिक्षकों ने तो यहां तक बताया है कि ऐप के द्वारा लोकेशन का आकलन भी ठीक प्रकार से नहीं हो रहा है। अब यहीं से शिक्षकों के विरोध का मुख्य बिंदु जन्मता है कि इस पंगु तकनीक के माध्यम से प्रतिदिन शिक्षकों की उपस्थिति की सटीक जानकारी कैसे ली जा सकती है ? सुदूर ग्रामीण क्षेत्र का शिक्षक अपनी दैनिक उपस्थिति के लिये जर्जर नेटवर्क और पंगु पोर्टल/ऐप पर क्यों आश्रित रहें?

2) यह स्प्ष्ट करने की आवश्यकता नहीं है कि एक शिक्षक, समाज निर्माण का कितना महत्वपूर्ण अंग होता है? लेकिन उसी शिक्षक के प्रति वर्तमान में प्रशासन का आचरण पूर्णतया अविश्वास आधारित है। मानो यह मान लिया गया है कि शिक्षक कामचोर है जो न तो समय से विद्यालय आता है न ही वह शिक्षण कार्य करता है। दण्ड आधारित नीतियों का निर्माण करने वाले नीति नियंताओं को लगता है कि वो डंडे से विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था को मानकों के अनुरूप कर लेंगे। न तो यहां विश्वासयुक्त सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए जाने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास किये गए न ही शिक्षकों की बुनियादी समस्यायों पर विचार। 

बेसिक शिक्षा परिषद के शिक्षक अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन मात्र 14 आकस्मिक अवकाशों से करते हैं। यह विडंबना ही है कि स्वयं के विवाह का विषय हो या अपने पुत्र/पुत्रियों का, किसी आकस्मिक दुखद परिस्थितियों की बात हो या परिवारीजन के मृत्योपरांत होने वाले धार्मिक कर्मकांड (तेरहवीं आदि), उत्तर प्रदेश का एक बेसिक शिक्षक इन सारे दायित्वों को नियम विरुद्ध जाकर चिकित्सकीय अवकाश लेकर ही पूर्ण कर पाता है क्योंकि उसे आकस्मिक अवकाश के अतिरिक्त कोई अन्य अवकाश देय ही नहीं है। क्या कभी अवकाश सम्बन्धी इन बुनियादी समस्याओं पर शासन ने विचार किया ? क्या आवश्यक नहीं कि प्रशासन द्वारा शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति की बात इन समस्याओं के निदान के बाद की जाती ? जबकि शिक्षकों से इतर राज्य कर्मचारियों को अन्य प्रकार के अवकाश भी देय हैं। 

3) डिजिटल उपस्थिति जैसा अव्यवहारिक आदेश देने वाला प्रशासन क्या उत्तर प्रदेश के अन्य राज्य कर्मचारियों की भांति बेसिक शिक्षा के शिक्षकों और उनके आश्रितों को चिकित्सकीय सुविधाएं मुहैया कराने हेतु जिम्मेदार नहीं है ? इस बुनियादी सुविधा पर कोई सार्थक पहल शासन/प्रशासन की तरफ से क्यों नहीं होती ?

4) पोलियो उन्मूलन, परिवार सर्वेक्षण, मतदाता पुनरीक्षण, मध्यान्ह भोजन व्यवस्था जैसे ढेरों गैर शैक्षणिक कार्य विद्यालय अवधि के अतिरिक्त तथा अवकाश के दिनों में कराना क्या शिक्षकों का शोषण नही है ? 

              मैं स्पष्टतः कह रहा हूँ कि कोई भी शिक्षक डिजिटाइलेशन के विरोध में नहीं है। विभाग द्वारा प्रदत्त ढेरों ऐसे कार्यों का निष्पादन भूतकाल से उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग के शिक्षक करते आए हैं। क्या प्रशासन के लिये यह बिंदु विचारणीय नहीं है कि जो शिक्षक गत कई वर्षों से निजी संसाधनों का प्रयोग कर विभाग की विभिन्न डिजिटल योजनाओं को गति देने में रत है, वही शिक्षक अब विभाग द्वारा टेबलेट और सिम उपलब्ध कराए जाने के बाद भी अपनी डिजिटल उपस्थिति के लिए सहमत क्यों नहीं हो पा रहा? डिजिटल उपस्थिति को लेकर हमारा मत है कि जब तक आपकी तकनीकि मानक के अनुरूप पुष्ट न हो इसे हमारी दैनिक उपस्थिति, हमारी सेवा और वेतन से कैसे सम्बद्ध किया जा सकता है ? शिक्षकों की डिजिटल उपस्थिति हेतु प्रयोग की जाने वाली तकनीकि की आधारभूत संरचना को मानकों की कसौटी पर कसे बिना उसे व्यापक रूप से आप कैसे लागू कर सकते हैं ? विचार कीजिये कि यदि किसी तकनीकि कारण से किसी शिक्षक की उपस्थिति किसी दिन ऐप पर अंकित होने से रह जाए तो पूरे दिन वो किस मनोदशा से विद्यालय में रहेगा ? क्या वो पूरे मनोयोग से शिक्षण कार्य कर पाएगा ? इस तरह का मानसिक दबाव एक शिक्षक पर लाद कर क्या शिक्षा के विभिन्न आयाम पूर्ण हो सकेंगे ? जबकि उस दिन की अनुपस्थिति में उस अमुक शिक्षक का कोई दोष नहीं...

यहां यह स्प्ष्ट करना भी आवश्यक है कि शिक्षकों की अवकाश सम्बन्धी बुनियादी समस्यायों और उनके पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति हेतु राज्य कमर्चारियों की भांति अन्य बुनियादी सुविधाओं की बात कर शिक्षकों के बीच विश्वास का वातावरण बना निःसन्देह ढेरों निर्दिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। लेकिन एक शिक्षक को मात्र कामचोर और समयचोर मानकर जब तक नीतियां बनती रहेंगी, वो अव्यवहारिक ही रहेंगी। एक शिक्षक को महज वेतनभोगी कर्मचारी या सरकारी नौकरी करने वाले नौकर के रूप में देखने से न तो उस शिक्षक के प्रति न्याय होगा और न ही यह समाज के हित में होगा। इसीलिये सभी नीति नियंताओं से करबद्ध आग्रह है कि शिक्षकों के साथ शिक्षक जैसे सम्मानित पद के गरिमानुकूल व्यवहार किये जाने की आवश्यकता है। 'वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः' की सूक्ति को जीने वाले शिक्षक समाज के टूट रहे आत्मविश्वास को शक्ति प्रदान किये जाने की आवश्यकता है। डंडे से शिक्षकों को नियंत्रित किये जाने की मनोदशा से बाहर आने की आवश्यकता है। इसलिये नीति नियंताओं को आत्मचिंतन करना होगा, सकारात्मक माहौल बनाना होगा। तभी शिक्षा का, शिक्षार्थियों का और इस प्रदेश का विकास सम्भव हो सकेगा।


✍️ डॉ पवन मिश्र

Tuesday, 16 April 2024

बाल कविताएं

 1)
मेरी प्यारी प्यारी अम्मा
जग में सबसे न्यारी अम्मा
मुझ पर सारा प्यार लुटाती
लड्डू पेड़ा मुझे खिलाती
रोज कहानी मुझे सुनाती
लोरी गाकर मुझे सुलाती
2)
रंग बिरंगी तितली रानी
मुझको लगती बड़ी सुहानी
दिन भर फूलों पर मंडराती
मानो उनसे रंग चुराती
इसको देखूं तो ललचाऊँ
मन करता है सँग उड़ जाऊं
3)
सुबह सुबह मेरी खिड़की पर
हर दिन है आती गौरैया 
फुदक-फुदक कर घर आंगन में
खुशियां बिखराती गौरैया
चावल के दाने चुग चुग कर
फुर से उड़ जाती गौरैया
4)
जगमग जगमग दीपों वाली
दीवाली की रात निराली
बंटी झूमे बबली झूमे
जैसे जैसे चरखी घूमे
खील बताशे गट्टे खाते
सारे बच्चे धूम मचाते
5)
सुबह सवेरे सूरज चाचू
हमें जगाने आते हैं
अपनी किरणों से धरती का
हर कोना चमकाते हैं
रोज सवेरे जल्दी आकर
सबमें जोश जगाते हैं
अंधेरे से हर दम लड़ना
सीख यही सिखलाते हैं
6)
चंदा मामा मुझे बताओ
दूर गगन क्यों बसते हो
किससे तुमको डर लगता जो
दिन भर छुपकर रहते हो
मेरी इतनी बात मान लो
मुझको गले लगा जाओ
तारों की टोली को लेकर
मेरी छत पर आ जाओ
7)
पथ चाहे हो दुर्गम लेकिन
नदिया बहती रहती है
कल-कल कल-कल करते करते
हँस कर संकट सहती है
चलते जाओ चलते जाओ
बात यही बस कहती है
8)
काले बादल काले बादल
मेरी छत पर आओ ना
गर्मी बढ़ती जाती देखो
पानी अब बरसाओ ना
सुनो जुलाई बीत रही है
अब तो तुम आ जाओ ना
आखिर क्यों रूठे हो हमसे
इतना तो बतलाओ ना
9)
चलें घूमने हम सब मेला
देखेंगे जादू का खेला
ऊंचे ऊंचे झूले होंगे
गुब्बारे भी फूले होंगे
ठंडी कुल्फी, गरम जलेबी
खुश है बंटी, खुश है बेबी
10)
सुबह ईश का ध्यान धरें हम
केवल अच्छे काम करें हम
सबसे मीठी वाणी बोलें
रिश्तों में मीठापन घोलें
सच का साथ कभी ना छोड़ें
दिल से दिल का रिश्ता जोड़ें
11)
अपना प्यारा भारत देश 
सबसे न्यारा भारत देश
हम सब इसकी हैं संतान
सदा रखेंगे इसका मान
सकल विश्व में है पहचान
जय जय भारत देश महान

✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday, 7 April 2024

ग़ज़ल- कीजिए रोशन उमीदी का चराग़

कीजिये रोशन उमीदी का चराग़
हौसलों का, ख़ुशनसीबी का चराग़

कोशिशों का तेल पाकर ही सदा
जगमगाता कामयाबी का चराग़

तीरगी में ही रहा सारा अवध
राम आए तो जला घी का चराग़

आँख तो इज़हार करती है मगर
होंठ पे रक्खा खमोशी का चराग़

हश्र तक मैं मुन्तज़िर उनका रहा
फिर बुझा मेरी यक़ीनी का चराग़

मुफ़लिसी का दर्द क्या समझेगा वो
घर में जिसके है अमीरी का चराग़

ऐ पवन कोशिश यही करनी तुझे
बुझ न पाए कोई नेकी का चराग़

✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday, 17 March 2024

ग़ज़ल- तुम्हारे घर जो बरकत आ रही है

तुम्हारे घर जो बरकत आ रही है
वो बेटी की बदौलत आ रही है

तुम्हारे साथ का शायद असर है
बदन में कुछ हरारत आ रही है

छुआ जबसे है तुमने यार मुझको
रकीबों की शिकायत आ रही है

सुकूँ से नींद लेना चाहता हूँ
मगर उनको शरारत आ रही है

बना है जो मेरी नींदों का दुश्मन
उसी से बू-ए-रिफ़ाक़त आ रही है

चुनावी साल है तो रहनुमा को
गरीबों पर मुहब्बत आ रही है

✍️ डॉ पवन मिश्र

बू-ए-रिफ़ाक़त- दोस्ती की महक

Sunday, 3 March 2024

ग़ज़ल- हर घड़ी अन्याय का प्रतिकार होना चाहिये

हर घड़ी अन्याय का प्रतिकार होना चाहिये
क्रूरता के वक्ष पर चढ़ वार होना चाहिये

मूक दर्शक बन के कब तक देखना विस्तार को
जंगली बेलों का अब उपचार होना चाहिये

झूठ के विज्ञापनों का शोर कब तक हम सुनें
सत्य के संवाद का अख़बार होना चाहिये

यदि हो वाणीपुत्र तो फिर राग दरबारी तजो
लेखनी में आपकी अंगार होना चाहिये

थक गया हूँ लड़ते लड़ते ज़िंदगी की जंग मैं
इस लड़ाई में भी इक इतवार होना चाहिये

मात्र मेरी भावना से बन नहीं पाएगी बात
आपकी आंखों में भी तो प्यार होना चाहिये

लिबलिबा व्यक्तित्व लेकर जी रहे तो व्यर्थ है
रीढ़ की हड्डी पे कुछ तो भार होना चाहिए

✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday, 24 February 2024

ग़ज़ल- प्रतीक्षा है तुम्हारे आगमन की

ये रातें अब नहीं कटतीं तपन की
प्रतीक्षा है तुम्हारे आगमन की

अधर को चाह है अधरों की तेरे
नयन को रूप-रस के आचमन की

मिलन ही प्रेम का है सत्य अंतिम
नही है बाध्यता जीवन-मरण की

दिखेगा आप के भीतर ही स्रष्टा
मिलेगी दृष्टि जब अंतर्नयन की

कभी समझे नहीं रामत्व क्या है
कथाएं कह रहे बस वनगमन की

बुराई ही दिखे जिनको चतुर्दिक
जरूरत है उन्हें स्व-आकलन की

कदाचित भूल जाएं लोग मुझको
तुम्हे तो याद आएगी पवन की ??

✍️ डॉ पवन मिश्र





ग़ज़ल- अगर हो सोच ही जब अतिक्रमण की

अगर हो सोच ही जब अतिक्रमण की
कहाँ फिर बात होगी आचरण की

कलुष अंतःकरण में बढ़ रहा है
मगर चिन्ता उन्हें बस आवरण की

गहन निद्रा में सब डूबे हुए हैं
मशालें कौन थामे जागरण की

रहेगा लोभ का रावण जहां भी
बनेगी योजना सीता हरण की

विचारों के लिये लड़ना ही होगा
कठिन वेला है मित्रों संक्रमण की

कई ढांचे कथाएं कह रहे हैं
हमारी अस्मिता पर आक्रमण की

✍️ डॉ पवन मिश्र

Friday, 19 January 2024

कविता- रामलला की प्राण प्रतिष्ठा

(अयोध्या में रामलला की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा के वर्तमान हालात के सम्बंध में मत्त सवैया छन्द आधारित अभिव्यक्ति)


धर्म प्राण है राजनीति का

राजनीति और राष्ट्रनीति का

लेकिन कुत्सित खद्दरधारी

लोकतंत्र के कुछ व्यापारी

राजनीति सुविधा की करते

नई-नई परिभाषा गढ़ते

पहले राम नहीं थे इनके

इस हित काम नहीं थे इनके

लेकिन अब वोटों के कारण

राम राम करते ये रावण

भर ललाट पर चंदन पोते

राजनीति का दुखड़ा रोते

लेकिन उनको ये बतलाओ

कोई तो जाकर समझाओ

छोड़ो सारी कारस्तानी

का बरसा जब कृषी सुखानी


तुमको भी तो समय मिला था

रजवाड़े में निलय मिला था

अपने पाप जरा धो लेते

पुण्य बीज कुछ तो बो लेते

भक्तों के कुछ दुख हर लेते

कुछ तो रामकाज कर लेते

लेकिन नीयत के तुम कारे

मुस्लिम तुष्टिकरण के मारे

हिन्दू हिय को तोड़ा तुमने

मंदिर से मुख मोड़ा तुमने

जबरन तुमने डाला ताला

राम काल्पनिक हैं, कह डाला


रक्षित करते रहे सदा तुम

पोषित करते रहे सदा तुम

ढांचे जैसी एक बला को

रखा टेंट में रामलला को


भारत माता के बच्चों पर

कारसेवकों के जत्थों पर

गोली तक चलवाई तुमने

सरयू लाल कराई तुमने

तुम कहते थे पाप नहीं है

कोई पश्चाताप नहीं है

फिर क्यूं खोज रहे आमंत्रण

अवधपुरी से मिले निमंत्रण

दम्भ हुआ सारा छू-मंतर

मंदिर बनते ही यह अंतर?


लेकिन जनता जान चुकी है

छल-प्रपंच पहचान चुकी है

रामधाम पर उसका हक है

रामलला का जो सेवक है

वर्षों से जो तपा-खपा है

निस दिन जिसने राम जपा है

मंदिर हित बलिदान दिया है

श्रम-धन छोड़ो प्राण दिया है

मुगलों को झुठलाया जिसने

मंदिर वहीं बनाया जिसने


बात एक बस यही सही है

जनता भी कह रही यही है

अब तक जो बस रहा राम का

श्रेय उसी को रामधाम का

अपने शीश नवाकर बोलो

दोनों हाथ उठाकर बोलो

भगवत वत्सल का ही नाम

जय-जय जय-जय जय श्री राम


✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday, 14 January 2024

ग़ज़ल- एकतरफा फ़ैसले के बाद क्या रह जाएगा

एकतरफा फ़ैसले के बाद क्या रह जाएगा
बस हमारे दरमियां इक फ़ासला रह जाएगा

खत्म कर देगा तिरा तर्ज़े तग़ाफ़ुल हर खुशी
जिंदगी में दर्द-ओ-गम का मरहला रह जाएगा

देख लेना ये अना तन्हा बना देगी तुम्हे
हमनवा कोई न होगा रास्ता रह जाएगा

माना उसको आईने से ही मुहब्बत है मगर
जब भी देखेगा मुझे वो देखता रह जाएगा

वो सिकन्दर जान पाया सारी दुनिया जीतकर
साथ जाएगा न कुछ भी सब धरा रह जाएगा

✍️ डॉ पवन मिश्र

तर्ज़े तग़ाफ़ुल- उपेक्षा का तरीका
मरहला- स्थान
अना- अहम, घमंड
हमनवा- साथ चलने वाला