ज़रा सी इक झलक दिखला चले जाते कहाँ यारो।
हमे भी ले चलो इक बार जाते हो जहाँ यारो।।
बड़ी वीरान दुनिया है बिना उन कहकहों के अब।
मिले थोड़ी सी फ़ुर्सत तो चले आओ यहाँ यारों।।
फ़टे पन्ने किताबों के वो बेतरतीब से बिस्तर।
बुलाता है हमे बचपन चलो फिर से वहाँ यारों।।
शिकायत थी हज़ारों दिल में, सोचा भी कहेंगे सब।
हुआ दीदार जब उनका बने हम बे दहाँ यारों।।
रवायत का पवन शायर, छुपा कर दर्द लिखता है।
अगर तुम देख पाओ ये मेरे हर्फ़े निहाँ यारो।।
-डॉ पवन मिश्र
बे दहाँ= बिना मुंह का (बेजुबां)
रवायत= परम्परागत
हर्फ़े निहाँ = छुपे हुए शब्द
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