मेरे अन्तर्मन से
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ग़ज़ल
Thursday, 7 January 2016
दुर्मिल सवैया- छल दम्भ बढ़ा
छल दम्भ बढ़ा जग में इतना।
निज स्वार्थ बिना अब स्नेह नहीं।।
सब भाग रहे धन वैभव को।
परमारथ को अब देह नहीं।।
मनुपुत्र सभी मद चूर हुए।
मिलता अब कोय सनेह नहीं।।
हर अंतस डूब रहा तम में।
मनदीपक में अब नेह नहीं।।
डॉ पवन मिश्र
शिल्प- आठ सगण (११२×8)
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