Thursday, 31 December 2015

पञ्चचामर छन्द- नवीन वर्ष


निशा कहीं चली गयी नया प्रभात छा गया।
प्रकाश पुंज जो खिला नवीन वर्ष आ गया।।
सुनो नवीन वर्ष में सदा यही प्रयास हो।
सप्रेम ही मिले सभी मनुष्य का विकास हो।१।

न द्वेष हो न राग हो न हो कहीं मलीनता।
धरा खिले बहार से सदा रहे नवीनता।।
करो सभी विचार ये ध्वजा कभी झुके नहीं।
बढ़े चलो मिले चलो कि देश ना रुके कहीं।२।

                                 -डॉ पवन मिश्र





सार छन्द/ छन्न पकैया- सर्द गर्म मौसम


छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम करवट लेता।
कभी सर्द तो कभी गर्म है, जैसे कोई नेता।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम है अनजाना।
इस सर्द गरम में सम्भव है, खाँसी का लग जाना।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मौसम सब पर भारी।
कभी ठण्ड तो कभी गरम से, व्याकुल हैं नर नारी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, कैसा मौसम फेरा।
दिन में रवि का ताप चढ़े है, फिर हो शीतल डेरा।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, ये कैसी है सर्दी ।
पूष मास में भी ना निकली, मोटी वाली वर्दी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, क्यूँ ना सर्दी आती।
हिम गिरने की बेला में क्यूँ, रंगत धूप दिखाती।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, तय कर लो अब प्रभु जी।
दूर करो ये लुका छिपी अब, मानो मेरी अरजी।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, मानो प्रभु हैं कहते।
पेड़ काट डाले है तुमने, जिनसे मौसम रहते।।

                              - डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 16,12 मात्राओं पर यति तथा चरणान्तक २२ या २११ या ११२ या ११११ से होना चाहिए।

Sunday, 27 December 2015

ग़ज़ल- ज़रा सी इक झलक दिखला


ज़रा सी इक झलक दिखला चले जाते कहाँ यारो।
हमे भी ले चलो इक बार जाते हो जहाँ यारो।।

बड़ी वीरान दुनिया है बिना उन कहकहों के अब।
मिले थोड़ी सी फ़ुर्सत तो चले आओ यहाँ यारों।।

फ़टे पन्ने किताबों के वो बेतरतीब से बिस्तर।
बुलाता है हमे बचपन चलो फिर से वहाँ यारों।।

शिकायत थी हज़ारों दिल में, सोचा भी कहेंगे सब।
हुआ दीदार जब उनका बने हम बे दहाँ यारों।।

रवायत का पवन शायर, छुपा कर दर्द लिखता है।
अगर तुम देख पाओ ये मेरे हर्फ़े निहाँ यारो।।

                              -डॉ पवन मिश्र

बे दहाँ= बिना मुंह का (बेजुबां)
रवायत= परम्परागत
हर्फ़े निहाँ = छुपे हुए शब्द

Saturday, 26 December 2015

चौपाई- प्रात भई खग चहकन लागे


प्रात भई खग चहकन लागे,
घर आँगन भी महकन लागे।।
निशा गयी फैला उजियारा,
कुसुमालय सा है जग सारा।।

शीतल मन्द पवन भी आयी,
हर बगिया हरियाली छायी।
ईश विनय में शीश झुकाऊँ,
कृपा दृष्टि आजीवन पाऊँ।।

गुरु चरणों में वन्दन अर्पित,
क्या मैं दूँ सर्वस्व समर्पित।
मात-पिता का प्रभु सम आदर,
जीवन अर्पण उनको सादर।।

यह मिट्टी तो जैसे चन्दन,
देश-प्रेम से महके तन मन।
इसकी ख़ातिर बलि बलि जाऊँ,
जन्म पुनः भारत में पाऊँ।।

              -डॉ पवन मिश्र


Monday, 21 December 2015

मुरलीधर अधरन पे


मुरली धर अधरन पर, लो मुरलीधर आये।
नाग नथैया बृज के, कान्हा मन हरसाये।१।

श्याम रंग अति शोभित, छवि मनमोहक साजे।
पुष्प गिरे अम्बर से, ढम ढम ढ़ोलक बाजे।२।

नयन रेख काजल की, मन्द हँसी मन मोहे।
ग्वाल बाल सब संगे, तन पीताम्बर सोहे।३।

बलदाऊ के भ्राता, गोवर्धन के धारी।
हाथ जोरि नत माथा, पूजें सब नर नारी।४।

                          -डॉ पवन मिश्र



Sunday, 20 December 2015

ग़ज़ल- बीए जबते पास किये हौ


बीए जबते पास किये हौ।
गरे मा हमरे फांस किये हौ।।

अत्ता भत्ता कछु नई मिलिहे।
फर्जी मा तुम आस किये हौ।।

तुमका कित्ता हम समझाइन।
फिरौ हमाये बांस किये हौ।।

हम जानित सब हिस्ट्री तुमरी।
काहे तुम बकवास किये हौ।।

फाड़ बतीसी देखि रहे जो।
अपने का परिहास किये हौ।।

कौड़ी कौड़ी बप्पा जोड़िन।
तुम पंचे सब नास किये हौ।।

               -डॉ पवन मिश्र

Thursday, 17 December 2015

ग़ज़ल- दफ़्न जज्बातों को


दफ़्न जज्बातों को बस थोड़ी हवाएं चाहिए।
सँगदिलों की भीड़ से थोड़ी वफाएं चाहिए।।

साजिशों का दौर जारी मुल्क में मेरे अभी।
साजिशें वो ख़ाक हों ऐसी दुआएं चाहिए।।

बुत बना है आदमी उसकी जमी है नब्ज़ भी।
रक्त जिनमें खौलता हो वो शिराएं चाहिए।।

दूसरों के घर जला जो सेकता है रोटियाँ।
उस सियासतदार की ख़ातिर चिताएं चाहिए।।

हस्तिनापुर सा नहीं संसद हमें मंजूर है।
द्रौपदी का मान हो ऐसी सभाएं चाहिए।।

तेज लहरें तोड़ दे तो वो भला पत्थर कहाँ।
रोक ले जो धार को ऐसी शिलाएं चाहिए।।

                                -डॉ पवन मिश्र








Tuesday, 15 December 2015

दुर्मिल सवैया- सुन कृष्ण पुकार यही तुमसे


सुन कृष्ण पुकार यही तुमसे।
इस जीवन के सब कष्ट हरो।।

पथ सूझ रहा न किसी जन को।
मन में सबके उजियार भरो।।

मति ह्रास भई जग में सबकी।
भव सागर से तुम पार करो।।

कर जोरि करूँ विनती तुमसे।
वसुदेव सुनो अब आन परो।।

              -डॉ पवन मिश्र

मुक्तक


वो मेरी है मैं उसका हूँ यही एहसास है दिल में।
वो हरपल साथ हो मेरे यही इक आस है दिल में।।
अभी हैं बंदिशे तुम पर जमाने के रिवाज़ों की।
क्षितिज के पार मिलना है यही विश्वास है दिल में।।

न तो तन्हाइयां डसती न ही अँगड़ाइयां रोती।
कभी आलम न ये आता अगर तुम पास में होती।।
सिमट जाता तेरे आगोश में लेकर मैं सारे गम।
मिटा के सारे गम मेरे नई खुशियों को तुम बोती।।

मैं तुमको याद करने के बहाने ढूँढ लेता हूँ।
पुराने एलबम को ही मैं अक्सर चूम लेता हूँ।।
गुजरता है शहर का डाकिया मेरी गली से जब ।
कोई पूछे या न पूछे मैं उसको पूछ लेता हूँ।।

मेरे जीवन की बगिया में फूलों सा महकना तुम।
घटा घनघोर जब छाये तो बिजुरी सा चमकना तुम।।
यही है कामना तुमसे मेरे प्रियतम मेरे हमदम।
मैं वँशी कृष्ण की लाऊँ तो राधा सा मचलना तुम।।

                                  -डॉ पवन मिश्र

Saturday, 12 December 2015

ग़ज़ल- मेरे दिल में तुम हो


मेरे दिल में तुम हो बताऊँ मैं कैसे।
बहुत कोशिशें की जताऊँ मैं कैसे।।

महकने लगे हैं तेरी इक छुवन से।
निशां उँगलियों के मिटाऊँ मैं कैसे।।

कोई पूछता तो ज़ुबाँ कुछ न कहती।
निगाहें जो बोले छुपाऊँ मैं कैसे।।

घने बादलों में छुपा चाँद मेरा।
जुदाई का ये गम उठाऊँ मैं कैसे।।

खता क्‍या हुई हमसे रूठे हुए है।
खुदा ही बताये मनाऊँ मैं कैसे।।

घुले हो रगों में मेरी सांस जैसे।
अगर चाहूँ भी तो भुलाऊँ मैं कैसे।।

                    -डॉ पवन मिश्र

Friday, 11 December 2015

दुर्मिल सवैया- तुम जान सको यदि मान सको


तुम जान सको यदि मान सको।
अभिमान व्यथा सब व्यर्थ प्रिये।।

इक मन्त्र सुनो इस जीवन का।
दुःख को सुख को सम मान प्रिये।।

सब की सुनना मति से करना।
यह भान सदा रखना तु प्रिये।।

जग की यह रीति पुरातन है।
दुख रूदन को अब त्याग प्रिये।।

              -डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 112 मात्राओं की आठ आवृत्ति

Wednesday, 9 December 2015

अतुकान्त- मेरी डायरी

मेरी डायरी
मेरे एकांत की सहचरी
करती है मौन समर्पण
स्वयं का
जब मैं होता हूँ
अकेला
आत्मसात करती है
मेरी भावनायें
मेरे शब्द
बिना उफ़ तक किये
सहती है
मेरे विचारों की उग्रता
शब्दों की ऊष्मा
समझती है
उस प्रेम को
जो है प्रतीक्षारत
आज भी
पहचानती है
मेरी पिपासा
मेरी जिज्ञासा
देती है स्थान
मेरी करुणा को
वेदना को
क्रोधित नहीं होती
जब खीझकर
निष्ठुरता से
फाड़ देता हूँ
पन्ने उसके
तब भी नहीं
जब सालों तक
जीवन की आपाधापी
के फलस्वरुप
रख छोड़ा था उसे
रद्दी की टोकरी में
असहाय सी
घर के एक
अँधेरे कोने में
लेकिन
आज भी
मेरे हृदय स्पंद से
सहसा पलट जाते हैं
उसके पन्ने
आज भी उन
पीले पन्नों में
सुरक्षित हैं
मेरे शब्द
मेरी कविता
तुम्हारी यादें
और कुछ
सूखे हुए फूल

 -डॉ पवन मिश्र

Sunday, 6 December 2015

कहानी- हुज्जती दद्दू


गली के मोड़ पर ही वो जमीन पे दो टोकरियां रख सब्जी लगाता था। एक अजीब सा समाजवाद था उन टोकरियों में जिसमें अमीरों की थाली के टमाटर, गोभी गरीबों के साग संग दिखते थे। काश्मीर पर भारत पाक सम्बन्धों की बानगी सी रखने की जगह को लेकर रोज रोज की मुन्ना संग उसकी झिक-झिक, पैसे न कम करने को लेकर ग्राहकों से खिट-पिट के बाद चलते चलते आवारा घूमती गाय को कुछ साग खिला जाना उसकी शामचर्या में शामिल था।
नाम तो पता नहीं लेकिन सब दद्दू बुलाते थे। रोज की इस पुनरावृत्ति के बारे मैंने एक दफ़ा पूछा, समझाना भी चाहा दद्दू थोड़ा धीरज धरा करो, मीठा मीठा बोला करो। पुण्य मिलने का रामबाणी लालच भी दिया। फिर क्या था दद्दू गुस्से से ऐसे लालटेन हुए जैसे ओसामा से ओबामा। बोले "लला खटोला तो हमही बिछाइबे हियन। दस सालें हुई गई हैं हमें। औ तुम जे मुन्ना से कहि देओ हमसे ज्यादा बकैती न करे।रंगबाजी काहू की नई देखत हम। बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है और ई सरमा जी का लागत है कि हम फोकट मा दई दे सब्जी इनका। और हमरे पुन्य के काजे तुम न फटो भगवान देखिहें सब।" और न जाने कौन कौन सी बड़बड़। जो न तो मैंने पूछी और न ही जिनसे मुझे सरोकार था। फिर गाय को साग खिला वो अपने रस्ते हम अपने घर।
 आज अचानक मण्डी में दिख गए दद्दू। फिर उसी हुज्जती अंदाज मे। एक आढ़ती से अपनी टोकरी पार्टी के लिये उचित मूल्य पर समाजवादी प्रत्याशी की चाह में उलझे थे। "जे लुबिया सही लगाये देओ तो कदुवा भी ले लेबे और तुरई भी। तुम पंचन का बस चले तो जेब हियनही उल्टी कराय लेओ। तनिक गरीबन का भी जीये देओ। बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है और पैसा ही कि खुद मा आग लगाये है।" आढ़ती ने जैसे तैसे दे-दवाकर पिंड छुड़ाया। फिर वही रिपीट सीन रिक्शे वाले के संग। लेकिन रिक्शा वाला भी दद्दू सा निकला, टस से मस न हुआ बोला "30 की औकात हो तो बोरा लादो और बइठो नहीं त हम चले झकरकट्टी तुम निकल ल्येओ पतरी गली से।" औकात शब्द सुनते ही दद्दू का पारा मंहगाई सा चढ़ा और चिल्लाये "ज्यादा बड़ी अम्मा न बनो। पता है हमे तुमाई औकात। बाप मरे अँधेरे में औ लऊंडा पावरहाउस। रोज तीन सौ पईंसठ देखित है तुमाई तरे। चलो कट लेओ हिअन से।" और बोरा पीठ पे लाद के चल दिए। न चाहते हुए भी बोरे के वज़न से मेरी जीभ दब गयी और बोल उठी " दद्दू तुम रिक्शा ले लेओ, मैं दिए दे रहा हूँ रुपिया।" लेकिन मेरे कहे का दद्दू पर वैसा ही असर हुआ जैसे जनता के कहे का नेता पर। वो न ठिठके न रुके। बस हनुमान चालीसा सरीखे अपनी चिर परिचित बकबक के सहारे चल पड़े।
जाने क्यों आज मैं भी रोमांटिक मूड में था। पीछे पीछे चल पड़ा और मौका ताड़ के दद्दू को फिर टोंका। दद्दू का हुई गा बड़ी रफ्तार मा हो। दद्दू बोले "आज जरा जल्दी मा है। बुढ़िया का लईके अबै डाग्डर के ढींगए जान है। कल्हे से बिटिया से बादा भी कीन है कि आज ऊका नया सलवार सूट ले देबे। ताही के चक्कर मा हुआंई से बजारौ निकरने है।आज तीरे पईसा भी है। ऊ आढ़ती से 20 बचे और 30 जे रेक्सा वाले, शाम की बिकरी ठीक भई तो 100 और चित। आज का काम तो पैंतिस। बस टेम नहीं है। लेट हुईगा तो ऊ चमगादड़ की औलाद मुन्ना से फिन से उलझे का पड़ी।" जाने क्यों ये सब बताते समय दद्दू इतने आत्मीय लग रहे थे जैसे चुनावी साल में नेता। दद्दू के उस 150 रूपये के अर्थशास्त्र ने मेरे जेब में रखे 500 के नोट को वैसे ही आईना दिखाया जैसे अक्सर डॉलर रूपये को। पीठ पे लदे बोझ और कदमो की रफ्तार में कोई सामंजस्य नहीं था।
पहली बार लगा कि बोरे में अगर सब्जियां होती तो दद्दू कब के थक कर बैठ गए होते या रिक्शे में होते। पीठ पर बेताल सरीखे लदे बोरे में भरी थी जिम्मेदारियां, उनकी बीमार बुढ़िया की दवा और जवान होती जा रही बिटिया के सलवार सूट। जो समान रूप से पीठ पे बोझ और कदमों को रफ़्तार दे रही थी। विज्ञान की भाषा में कहूँ तो बोझ और चाल दोनों ही डायरेक्टली प्रपोशनल से लग रहे थे। मैं एकटक देख रहा था दद्दू को और वो तेज कदमों से चलते ही जा रहे थे। कि अचानक मेरी एकाग्रता में खलल पड़ी। कानों ने सुनी किसी कार के ब्रेक्स की तीक्ष्ण चिचिआहट और आँखों ने देखा दद्दू सामने  सड़क पर। मैं दौड़ कर पहुंचा। आदत के विपरीत दद्दू खामोश थे। अचेत शरीर सड़क के एक किनारे पर था। सब्जियों का बोरा कुछ दूरी पर बिखरा पड़ा था। लोगों की तमाशबीन भीड़ दद्दू के शरीर को घेर रही थी। सब्जियों के करीब आवारा जानवर दद्दू की आत्मा को पुण्य दिलाने के प्रयास में संघर्षरत थे। कार वाला भी खिली धूप का चन्द्रमा बन चुका था। धीरे धीरे भीड़ भी छंट ही रही थी। दद्दू का पार्थिव शरीर था सामने। तब तक मुन्ना भागकर दद्दू की बुढ़िया और जवान बेटी को बुला लाया था। पहली बार पाया कि दद्दू के अगल बगल चिल्ल मंची थी और दद्दू शांत थे। या शायद उस समय यमराज से हुज़्ज़त कर रहे होंगे कि बुढ़िया बीमार धरी है घर मा। बिटियवा जवान हुई जा रही है औ तुम का जल्दी मची है हमे ले जान की।।।।।।।

डॉ पवन मिश्र

Saturday, 5 December 2015

ग़ज़ल- गांव में जिनके मकां कच्चे लगे


गांव में जिनके मकां कच्चे लगे।
बात के हमको बहुत अच्छे लगे।।

रेत के अपने घरौंदों को लिए।
तिफ़्ल वो हमको बड़े सच्चे लगे।।

ज़िद पकड़ के रूठने की ये अदा।
आप तो दिल के हमें बच्चे लगे।।

देखने की जब तुझे चाहत हुई।
दीद में बस फूल के गुच्छे लगे।।

छत न जिनकी रोक पाती बारिशें।
वो उसूलों के बहुत पक्के लगे।।

                      -डॉ पवन मिश्र

तिफ़्ल= बच्चे,    दीद= देखना





Friday, 4 December 2015

ग़ज़ल- सज सँवर के शाम वो


सज सँवर के शाम वो हमको रिझाने आ गए।
ज़ाम नज़रों के हमें देखो पिलाने आ गए।।

हुस्न उनका इस कदर हावी हुआ जज़्बात पर।
दिल हथेली पे लिए उनके निशाने आ गए।।

बेबसी की शाम अब ढलने को है कुछ देर में।
थक चुकी आँखों को वो सपने दिखाने आ गए।।

खुद की ख़ातिर जी रहे जो अब तलक संसार में।
इश्क की रस्में वही हमको सिखाने आ गए।।

थाम कर मजबूरियों को तुम गए थे छोड़कर।
हम वही हैं फिर वही रिश्ता निभाने आ गए।।

दूरियाँ मंजूर हैं रूस्वाइयां लेकिन नहीं।
जो मिला वो हारकर तुमको जिताने आ गए।।

                               -डॉ पवन मिश्र

Wednesday, 2 December 2015

ग़ज़ल- अब मेरे दिल को उनसे अदावत नहीं


अब मेरे दिल को उनसे अदावत नहीं।
वो सितमगर है फिर भी शिकायत नहीं।।

ये अदा खूब है हुस्न वालों की भी।
वादा करके निभाने की आदत नही।।

आज आएंगे वो छत पे मिलने हमें।
चाँद की आज हमको जरूरत नहीं।।

कोई जाके बता दे उन्हें बात ये।
वो नहीं तो मेरे घर में बरकत नहीं।।

रेवड़ी बाँटने में ही मशगूल सब।
रहनुमाओं सुनों ये सियासत नहीं।।

बस्तियां जल गयी रोटियों के लिये।
उनके दिल में कहीं नेक-नीयत नहीं।।

ये सफ़र जीस्त का रायगाँ मत करो।
ये जवानी उमर भर  की नेमत नहीं।।

आँख मूंदें तो सर हो तेरी ज़ानो पे।
इससे ज्यादा पवन की तो हसरत नहीं।।

                          -डॉ पवन मिश्र
अदावत= शत्रुता,   जीस्त= जिंदगी,  
रायगाँ= व्यर्थ,    ज़ानो= गोद

Monday, 30 November 2015

ग़ज़ल- क्यों यहां बचपन बिलखता जा रहा है


क्यों यहां बचपन बिलखता जा रहा है।
क्या हुआ जो वो सिसकता जा रहा है।।

बाँध लेना चाहता हूँ मुठ्ठियों में।
रेत जैसा जो फिसलता जा रहा है।।

रोक पाना अब उसे मुमकिन नहीं है।
आँच में मेरी पिघलता जा रहा है।।

शब्द भी अब तो नहीं हैं पास मेरे।
रूप तेरा यूँ निखरता जा रहा है।।

थाम लेना चाहता हूँ हाथ फिर से।
जानता हूँ वो बिखरता जा रहा है।।

                      -डॉ पवन मिश्र

Saturday, 28 November 2015

ग़ज़ल- इश्तहारों की चमक में खो गयी है


इश्तहारों की चमक में खो गयी है।
ज़िन्दगी अख़बार सी अब हो गयी है।।

रंग खादी का चढ़ेगा खूब अब तो।
आदमीयत छोड़ जो उनको गयी है।।

ये तमाशा और भी होगा जवाँ अब
श्वान के पाले में हड्डी जो गयी है।।

मैं ही क्या, अब आसमां भी है परेशां।
चाँद भी गुमसुम है जबसे वो गयी है।।

अब तो लगता है मिलेंगी राहतें कुछ।
चाँदनी कल ज़ख्म मेरे धो गयी है।।

दिल की बस्ती में बड़ी रानाइयां हैं।
रोशनी की फ़स्ल गोया बो गयी है।।

                      -डॉ पवन मिश्र
रानाइयां= चमक,    गोया= मानो

Tuesday, 10 November 2015

अबकी ऐसी हो दीवाली


दीपक ऐसा जो तम हर ले।
अंतस को भी जगमग कर दे।।
हर मुखड़े पे दमके लाली।
अबकी ऐसी हो दीवाली।।

रंगबिरंगी फुलझड़ियों सी।
खुशियाँ नाचे जब चरखी सी।।
रौशन हो सब राहें काली।
अबकी ऐसी हो दीवाली।।

रसगुल्लों से मीठे रिश्ते।
प्रेम समर्पण जिनमे बसते।।
शोभित पुष्पों से हर डाली।
अबकी ऐसी हो दीवाली।।

देश मेरा ख को भी छू ले।
उन्नति के पथ पर ही हो ले।।
विश्व गुरु की छटा निराली।
अबकी ऐसी हो दीवाली।।

              -डॉ पवन मिश्र
ख= आकाश

Monday, 9 November 2015

दुर्मिल सवैया- हर बार हमी कहते तुमसे


हर बार हमी कहते तुमसे।
कुछ तो तुम भी दिन रात कहो।।

प्रिय मान सको कहना यदि तो।
निज अश्रु त्यजो अभिमान करो।।

यह जीवन प्रेम समर्पण है।
बस प्रीत क रीत निभाय चलो।।

इस जीवन का सपना तुम ही।
कवि मैं हमरी कविता तुम हो।।

               -डॉ पवन मिश्र

दुर्मिल सवैया-112 मात्राओं की आठ आवृत्ति

Sunday, 8 November 2015

ग़ज़ल- ऐ खुदा अहसान तेरा


ऐ खुदा अहसान तेरा मानता हूँ।
ये खियाबां हो इरम मैं चाहता हूँ।।

दफ़्न कर दो सारे शिकवे दरमियां के।
सिलसिला बातों का फिर से मांगता हूँ।।

कोरे कागज़ पे लिखा हर भाव उसने।
उसकी आँखों की ही भाषा बांचता हूँ।।

इश्क का दरिया उफनता जा रहा है।
शौक कुछ ऐसे ही तो मैं पालता हूँ।।

दौर है मुश्किल मगर थोड़ा सँभलना।
इस अदावत की वजह मैं जानता हूँ।।

हाथ में झंडे लिये काफ़िर खड़े हैं।
भीड़ की सच्चाई मैं पहचानता हूँ।।

कुछ नहीं है और ख्वाहिश अब पवन की।
जेब खाली करके खुशियाँ बांटता हूँ।।

                        -डॉ पवन मिश्र

खियाबां= बाग़, इरम= जन्नत

Thursday, 5 November 2015

ग़ज़ल- मेरे दिल को तो थोड़ा चहक जाने दो


मेरे दिल को तो थोड़ा चहक जाने दो।
यारा हमको भी थोड़ा महक जाने दो।।

कब तलक ये नज़र तरसे दीदार को।
रोको मत रुख़ से पर्दा सरक जाने दो।।

मैकदे में कहाँ साकी तुमसा कोई।
आँखों के जाम थोड़ा छलक जाने दो।।

तेरी चाहत के मारे चले आये हैं।
अपनी बाँहों में हमको बहक जाने दो।।

जिनकी वजहों से हैं तंग आँगन मेरे।
इन दीवारों को थोड़ा दरक जाने दो।।

                   -डॉ पवन मिश्र

Tuesday, 3 November 2015

ताटंक छन्द- शांति पाठ की बात अनर्गल



शांति पाठ की बात अनर्गल, समय यही प्रतिकारों का।
शीश कलम कर के ले आओ, धरती के गद्दारों का।।
भूल गए इतिहास पड़ोसी, भान नहीं है हारों का।
कूटनीति को त्याग समय है, हर हर के जयकारों का।।

रक्त भरे माँ के आँचल को, पुत्र न अब सह पायेगा।
सीने में धधक रही ज्वाला, शान्त नही रह पायेगा।।
बहुत हो गया छद्म वार अब, शत्रु न कुछ कह पायेगा।
अपने दूषित कर्मों का फल, निश्चित ही वह पायेगा।।

हो जाने दो घमासान अब, रणभेरी बज जाने दो।
अस्त्र शस्त्र तैयार धरे हैं, वीरों को सज जाने दो।।
फ़ौज खड़ी है बकरों की तो, गरज़ सिंह को जाने दो।
स्वांग रचाता पौरुष का जो, उसको तो लज जाने दो।।

अपनी हर कुत्सित करनी पे, उसको अब पछताना है।
बहुत दे चुके क्षमादान अब, रौद्र रूप दिखलाना है।।
त्याग कृष्ण की वंशी को अब, चक्र सुदर्शन लाना है।
मानचित्र में पाक न होगा, अबकी हमने ठाना है।।


                                          -डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 16 और 14 मात्राओं पर यति के साथ अंत में तीन गुरुओं की अनिवार्यता

Monday, 2 November 2015

पञ्चचामर छन्द- अजीब सी हवा चली


अजीब सी हवा चली,
समाज छिन्न भिन्न है।

पुकार सृष्टि की सुनो,
दिखे कि तू अभिन्न है।

न चाँद है न चांदनी,
चकोर तो विभिन्न हैं।

प्रभो करो कृपा सदा,
सभी मनुष्य खिन्न हैं।

        -डॉ पवन मिश्र

चार चार पर यति समेत लघु गुरु की आठ आवृत्ति

Saturday, 31 October 2015

ग़ज़ल- लाश पर करने सियासत


लाश पर करने सियासत कुछ सयाने आ गए।
आदमीयत वो हमे देखो सिखाने आ गए।।

झोपड़े की आग में मासूम जल कर राख थे।
ओढ़ कर खादी सभी फोटो खिचाने आ गए।।

नज़्म की ख़ातिर बिठाया आपको सर आँख पर।
मान लौटा के न जाने क्या जताने आ गए।।

मन्दिरों औ मस्जिदों में ढूंढते हैं जो खुदा।
मजहबों के नाम पर वो घर जलाने आ गए।।

हाथ जोड़े बाँध भोंपू बेचकर ईमान को।
पांच सालों का वही जलसा मनाने आ गए।।

                         -डॉ पवन मिश्र

Thursday, 29 October 2015

दुर्मिल सवैया- हर बात खरी कहिये सबसे


हर बात खरी कहिये सबसे,
मन की गठरी हलकी रखिये।

सुख हो दुख हो क्षण भंगुर हैं,
हर प्रात यही जपते रहिये।।

सब आतुर हैं धन वैभव को,
यह भंगुर है खुद से कहिये।।

भव सागर से तरना गर हो,
हरि नाम जपा करते रहिये।।

                 - डॉ पवन मिश्र

दुर्मिल सवैया छंद- आठ सगण अर्थात् 112×8 मात्रा युक्त सममात्रिक छन्द

Saturday, 24 October 2015

ग़ज़ल- हालात मुनासिब हो जायें


हालात मुनासिब हो जायें।
गर उनसे मिलने को जायें।।

जानो पे रख लो सर मेरा।
इक रात चैन से सो जायें।।

बस यही इल्तिज़ा है मेरी।
चाहत में उसके खो जायें।।

ख़ामोश ख़ियाबां लगता है।
कुछ तो जाज़िब गुल बो जायें।।

ऐ खुदा मिले उनको जन्नत।
सजदे में तेरे जो जायें।

        -डॉ पवन मिश्र

जानो= गोद, इल्तिज़ा= निवेदन, खियाबां= बाग़, जाज़िब= आकर्षक, गुल= फूल

Wednesday, 21 October 2015

हे प्रिये सुनो अब आन मिलो

                 ~मत्त सवैया छन्द~

हे प्रिये सुनो अब आन मिलो, रैना न बितायी जाती है।
मन आकुल है तन व्याकुल है, नयनो को नींद न भाती है।।

आकाश बना कर यादों का, मन का खग विचरण करता है।
इस ओर कभी उस ओर कभी, यह मारा मारा फिरता है।।

तुम आओगे कब आओगे, अपलक नयनों से ताक रहे।
शोर बढ़ा है धड़कन का पर, हर आहट पे हम झांक रहे।।

निष्ठुर जग के आघातों पर, थोड़ा सा मरहम धर जाओ।
मन की वीणा के तारों को, थोड़ा सा झंकृत कर जाओ।।

                                        -डॉ पवन मिश्र

शिल्प- 16,16 मात्राओं पर यति तथा पदांत में गुरु की अनिवार्यता।

Saturday, 17 October 2015

ग़ज़ल- बेतुकी बात है तो असर क्या करे


बेतुकी बात है तो असर क्या करे।
देखना ही न हो तो नज़र क्या करे।।

लाख मिन्नत पे भी गर परिन्दे उड़े।
छोड़ के घोसलें तो शज़र क्या करे।।

चन्द कदमों में ही देख के मुश्किलें।
लड़खड़ा वो गए तो डगर क्या करे।।

जाना था साथ उनके बहुत दूर तक।
हाथ वो छोड़ दें तो सफ़र क्या करे।।

जिनसे अम्नो वफ़ा की रिवायत बनी।
लेके पत्थर खड़े तो शहर क्या करे।।

रंजिशें दिल में हाथों में खंज़र लिए।
रात बैरन बनी तो सहर क्या करे।।

                   -डॉ पवन मिश्र

शज़र=पेड़, रिवायत= रीति-रिवाज, सहर= सुबह

Tuesday, 13 October 2015

ग़ज़ल- संगदिल को छुआ तो पिघलने लगे


संगदिल को छुआ तो पिघलने लगे
रफ्ता रफ्ता तो वो भी मचलने लगे।।

जान के हमको ये कुछ तसल्ली हुई।
ठोकरें खा वो खुद ही सँभलने लगे।।

गांव की वीथियां हो गई मौन क्यूँ।
छोड़ कर सब शहर को ही चलने लगे।

जिनके दामन पे छीटें सियाही के है।
सर पे टोपी पहन के निकलने लगे।।

अब किसी की शिकायत करे क्या पवन।
लोग कपड़ों के जैसे बदलने लगे।।

                 -डॉ पवन मिश्र

संगदिल= पत्थर दिल, वीथियां= गलियां

Saturday, 10 October 2015

ग़ज़ल- तुझे ही याद रखने की


तुझे ही याद रखने की मुसीबत जानकर पाली।
कभी तू भी ज़रा तो देख मेरी आँख की लाली।।

यहाँ के रहनुमा अब चाहते शागिर्द ऐसे हों।
समझ में कुछ न आये पर बजा दे हाथ से ताली।

न जाने किसने घोला है फ़िज़ाओं में ज़हर इतना।
सभी के हाथ में खंजर जुबां पे है धरी गाली।।

गरीबों की रसोई का रहे अक्सर यही आलम।
कभी हैं लकड़ियां गीली कभी भण्डार है खाली।

पवन को ऐ मेरे मौला फ़क़त ये ही अता करना।
न तपते दिन यहां पे हों न रातें हो कभी काली।।


                                      -डॉ पवन मिश्र

Wednesday, 30 September 2015

ग़ज़ल- दूर से ही सब निशाने हो गए


दूर से ही सब निशाने हो गए।
इश्क के कितने बहाने हो गए।।

हर सितम हमको तेरा मंजूर है।
आशिकी में हम दीवाने हो गए।।

दूसरों के घर बुझाते जब जले।
धीरे धीरे हम सयाने हो गए।।

माँ का आँचल याद आता है बहुत।
चैन से सोये जमाने हो गए।।

साजिशें सारी समझता है "पवन"।
ये तरीके तो पुराने हो गए।।

              - डॉ पवन मिश्र

Sunday, 27 September 2015

प्रमाणिका छन्द- चलो चले प्रकाश में

~प्रमाणिका छन्द~

चलो चले प्रकाश में।
नवीन दृश्य आश में।।

निशा प्रमाण खो गया।
नया विहान हो गया।।

लता खिली बहार से।
गुलों समेत प्यार से।।

प्रभो सुनो पुकार है।
यही सदा विचार है।।

न द्वेष हो कभी यहां।
न क्लेश हो कभी यहां।।

रहें सभी लगाव से।
बढ़े चले प्रभाव से।।

घनी भले निशा मिले।
निराश भाव ना खिले।।

प्रकाश पुंज संपदा।
दिया जला रहे सदा।।

     -डॉ पवन मिश्र

शिल्प- लघु गुरु की चार आवृत्ति (1 2×4)

जीवन खुशियों का दर्पण हो


जीवन खुशियों का दर्पण हो,
सबको खुशियाँ ही अर्पण हो।
सब प्रीत करें अंतर्मन से,
रिश्तों में मौन समर्पण हो।।
                 जीवन खुशियों का दर्पण हो,
                 सबको खुशियाँ ही अर्पण हो।
अधरों पर झूठ कभी ना हो,
पलकों पर नीर कभी ना हो।
जीवंत जियें हर नर नारी,
नैराश्य भाव का तर्पण हो।।
                 जीवन खुशियों का दर्पण हो,
                 सबको खुशियाँ ही अर्पण हो।
कोमल फूलों को सम्बल हो,
भँवरों का गुंजन प्रतिपल हो।
काँटों का उद्भव रुक जाये,
बस पुष्पों का आकर्षण हो।।
                जीवन खुशियों का दर्पण हो,
                सबको खुशियाँ ही अर्पण हो।
                   
                            -डॉ पवन मिश्र
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Thursday, 24 September 2015

ग़ज़ल- सौ बहानों से वो


सौ बहानो से वो आजमाने लगे।
जाने क्यों आज नज़रे चुराने लगे।।

दिल की गहराइयों से था चाहा जिसे।
आज जब वो मिले तो बेगाने लगे।।

मखमली रातों की याद भी अब नहीँ।
जाने क्या हो गया सब भुलाने लगे।।

साथ मंजिल तलक आपको आना था।
इक फ़क़त मोड़ पे लड़खड़ाने लगे।।

भूल कर सारे वादों इरादों को वो।
गैर की बाँहों में मुस्कुराने लगे।।

कल तलक रूठ कर मान जाते थे जो।
आज हो कर खफ़ा दूर जाने लगे।।

वो नहीं साथ है फिर भी हम हैं वहीं।
उनकी यादों से खुद को सताने लगे।।

जो भी मजबूरियां हों मुबारक उन्हें।
इश्क के कायदे हम निभाने लगे।।

अब क़ज़ा आये या हो कोई भी सज़ा।
टूटे दिल में उन्ही को सजाने लगे।।

                            -डॉ पवन मिश्र
क़ज़ा= मौत

Wednesday, 23 September 2015

मनहरण घनाक्षरी छन्द- वन्दे मातरम्


गीत है यह प्राण का विजय के प्रमाण का।
भारतीय मान का ये गान वन्दे मातरम् ।।

क्रान्तिकारियों की शान देश का नव विहान।
आश की किरण का ये गान वन्दे मातरम्।।

जो शोषितों को मान दे औ निर्बलों को प्राण दे।
ऐसा देवताओं सा ये गान वन्दे मातरम्।।

कोई शस्त्र हो समक्ष चाहे मृत्यु हो प्रत्यक्ष।
श्वास फिर भी गाये ये गान वन्दे मातरम् ।।

                                  -डॉ पवन मिश्र

मनहरण घनाक्षरी छन्द- आठ, आठ, आठ, सात पर यति वाला वार्णिक छन्द।

Tuesday, 22 September 2015

दुर्मिल सवैया- निज स्वार्थ तजो


निज स्वार्थ तजो यह ध्यान रहे।
यह धर्म सनातन भान रहे।।

इक सत्य यही बस अंतस में।
निज देश कला पर मान रहे।।

कटुता सबकी मिट जाय प्रभो
मनु हैं इसका अभिमान रहे।।

करबद्ध निवेदन है इतना।
यह भारत देश महान रहे।।

               -डॉ पवन मिश्र

दुर्मिल सवैया छंद- आठ सगण अर्थात् 112×8 मात्रा युक्त सममात्रिक छन्द

Monday, 21 September 2015

ग़ज़ल- तुम अगर साथ दो


तुम अगर साथ दो सब सँभल जायेगा।
एक पल में ही मंजर बदल जायेगा।।

छुप के देखो न तुम, रेशमी ओट से।
मिल गई जो नज़र, दिल मचल जायेगा।।

रुक सको तो रुको, महफिले शाम में
है परेशां बहुत, मन बहल जायेगा।।

दिल परेशान है, धड़कनें बावली।
तेरे ज़ानों पे हर गम पिघल जायेगा।।

नर्म सांसो को आहों से, रखना जुदा।
ये भड़क जो गयीं, तन उबल जायेगा।।

बेरुखी से तुम्हारी दीवाना तेरा।
हाथ से रेत जैसा फिसल जायेगा।।

हूँ परेशां मगर साथ उम्मीद भी।
ये भी इक दौर है जो निकल जायेगा।।

शब्द बिखरे पड़े है पवन के यहाँ।
गुनगुना दो तो कह के ग़ज़ल जाएगा।।
                         
                           - डॉ पवन मिश्र
ज़ानों= गोद

Saturday, 19 September 2015

ग़ज़ल- बात करने के बहाने हो गए


छेड़ कर दिल को हमारे वो गए।
बात करने के बहाने हो गए।।

इक फ़क़त दीदार उनका क्या मिला।
होश से हम हाथ अपने धो गए।।

नक्शे पा पे चल पड़े हैं आपके।
आप मेरे रहनुमा जो हो गए।।

ढूंढ पाना खुद को अब मुमकिन नहीं।
आपके इदराक में हम खो गए।।

सांस वो होगी हमारी आखिरी।
गर जुदा अब आप हमसे हो गए।।

                   -डॉ पवन मिश्र

नक्शे पा= पैरों/कदमों के निशान
इदराक= सोच

Friday, 18 September 2015

हरिगीतिका छन्द- हे प्राणप्यारी प्रियतमा


हे प्राण प्यारी प्रियतमा तुम, शान्त क्यों कुछ तो कहो।
मन के सभी संताप छोड़ो, स्वप्न-नव उर में गहो।
जब हूं सदा मैं साथ तेरे, संकटों से क्यूं डरो।
जो नीर पलकों पर धरे हैं, व्यर्थ मत इनको करो।

माना तिमिर गहरा घना है, धीर थोड़ा तुम धरो।
आगे खुला आकाश सारा, आस धूमिल मत करो।
आरम्भ ही तो है अभी यह, डगमगाना क्यों अहो।
विश्वास ही सम्बल परम है, धार में आगे बहो।

                                          - डॉ पवन मिश्र

*हरिगीतिका चार चरणों का सममात्रिक छंद  होता है।16 व 12 के विराम के साथ प्रत्येक चरण में 28 मात्राओं तथा अंत में लघु व गुरु की अनिवार्यता होती है।

Wednesday, 16 September 2015

ग़ज़ल- वो गए तो हमे याद आती रही

वो गए तो हमे याद आती रही।
रात काली उन्हें भी डराती रही।।

ख्वाब बेचैन थे नींद थी ही नहीं।
आप आये नहीं याद आती रही।।

रात में चाँद के साथ हम हो लिए।
चांदनी तेरे किस्से सुनाती रही।।

रात में बेकली किस कदर थी उन्हें।
सिलवटें चादरों की बताती रही।।
                   
होठ को शबनमी बूँद से क्या मिला।
खुद जली और हमको जलाती रही।।

पलकों की कोर पे सूखे मोती लिए।
सुर्ख़ मेहंदी हमें वो दिखाती रही।।
                 

                        -डॉ पवन मिश्र

Monday, 14 September 2015

कुछ दोहे- हिंदी भाषा के सन्दर्भ में

                   
हिन्दी तो अनमोल है, मीठी सुगढ़ सुजान।
देवतुल्य पूजन करो, मातु पिता सम मान।। (1)

दुर्दिन जो हैं दिख रहे, उनके कारण कौन।
सबकी मति है हर गई, सब ठाढ़े हैं मौन।। (2)

ठूंठ बनी हिन्दी खड़ी, धरा लई है खींच।
गूंगे बनकर बोलते, देंखें आँखिन मींच।। (3)

सरकारी अनुदान में, हिन्दी को बइठाय।
अँग्रेजी प्लानिंग करें, ग्रोथ कहाँ से आय।। (4)

जब सोंचे हिन्दी सभी, हिन्दी में हो काम।
हिन्दी में ही बात हो, भली करेंगे राम।। (5)

                                  - डॉ पवन मिश्र