Sunday 19 March 2017

ग़ज़ल- और मैं हूँ


महज इक ख़ामुशी है और मैं हूँ।
कि आँखों में नमी है और मैं हूँ।।

बिना उनके कहाँ रानाइयाँ अब।
घनी ये तीरगी है और मैं हूँ।।

बिखर जाऊँ न मैं आकर सँभालो।
*बड़ी नाजुक घड़ी है और मैं हूँ*।।

गया जबसे पिलाकर वो नज़र से।
उसी की तिश्नगी है और मैं हूँ।।

सुनेगा कौन मेरे दिल की बातें।
फ़क़त तन्हाई ही है और मैं हूँ।।

चले आओ जहाँ भी तुम छुपे हो।
फिजा ये ढूँढती है और मैं हूँ।।

उधर धोखे ही धोखे हर कदम पर।
इधर बस आशिकी है और मैं हूँ।।

                       ✍ डॉ पवन मिश्र

तीरगी= अंधेरा      तिश्नगी= प्यास

*इंदिरा वर्मा जी का मिसरा

Saturday 11 March 2017

दोहे- जोगीरा सा रा रा रा


इस होली में का कहें, जियरा का हम हाल।
भगवा हुइगा देश सब, क्या नीला क्या लाल।।
जोगीरा सा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा

नमो नमो मनई रटें, अईस नाम में दम।
पूरा यू पी हिल गवा, मानो फटा हो बम।।
जोगीरा सा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा

चचा भतीजा सब सफा, बुआ खड़ी पगुराय।
का से का ई हुइ गवा, कछू समझ नहि आय।।
जोगीरा सा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा

पप्पू जीव अजीब है, ओकिर किस्मत फूट।
टीपू का लई डारिस, गयी सायकिल टूट।।
जोगीरा सा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा

हाथी गोबर कर दिहिस, हैण्डपम्प भी जाम।
कहे भैंसिया देख लो, ईवीयम के काम।।
जोगीरा सा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा

तपती दुपहरिया मिटी, आयी महकी शाम।
सब बोलो दिल खोल के, जय जय जय श्री राम।।
जोगीरा सा रा रा रा, जोगीरा सा रा रा रा

                                      ✍ डॉ पवन मिश्र

Wednesday 8 March 2017

ग़ज़ल- नवजीवन की आशा हूँ


नवजीवन की आशा हूँ।
दीप शिखा सा जलता हूँ।।

रक्त स्वेद सम्मिश्रण से।
लक्ष्य सुहाने गढ़ता हूँ।।

अंतस ज्योति जली जबसे।
अपनी धुन में रहता हूँ।।

जीवन के दुर्गम पथ पर।
अनथक चलता रहता हूँ।।

प्रभु पे है विश्वास अटल।
बाधाओं से लड़ता हूँ।।

घोर तिमिर के मस्तक पर।
अरुणोदय की आभा हूँ।।

भावों का सम्प्रेषण मैं।
शंखनाद हूँ कविता हूँ।।

      ✍ डॉ पवन मिश्र

Sunday 5 March 2017

ग़ज़ल- किससे कहूँ ?


दर्द हद से बढ़ रहा है, आँख नम, किससे कहूँ ?
अपने ही जब ढा रहे, मुझ पे सितम, किससे कहूँ ?

आइना भी हो गया बेज़ार मुझसे अब यहाँ।
सुनने वाला कौन है मैं अपना ग़म किससे कहूँ ?*

चंद सिक्कों की चमक में ठूँठ जैसी हो गयी।
हे विधाता मौन जब कवि की कलम, किससे कहूँ ?

माना मंज़िल मुंतज़िर अब भी खड़ी है राह में।
छोड़ दें गर हौसला अपने कदम, किससे कहूँ ?

घोसलें तो मैं सजा दूँ फिर से सूनी शाख़ पे।
पर परिन्दे ही न माने तो सनम किससे कहूँ ?

देश का अभिमान थे, सम्मान थे जो रहनुमा।
उनके चमचे अब करें नाकों में दम, किससे कहूँ ?

अम्न लाने की थी जिम्मेदारियां जिनपे पवन।
वो सियासतदार ही जब बेरहम, किससे कहूँ ?

                                   ✍ डॉ पवन मिश्र

* समर कबीर साहब, उज्जैन का मिसरा