Sunday 9 September 2018

ग़ज़ल- तीरगी को रोशनी दरकार है



वो ही चेहरा वो हँसी दरकार है।
तीरगी में रोशनी दरकार है।।

बन के नश्तर याद तेरी चुभ रही।
अब तो मुझको बस तेरी दरकार है।।

अनमनी सी ढो रही है जिस्म बस।
ज़िंदगी को मौत की दरकार है।।

कोख में ही मारते हो बेटियां।
और कहते हो खुशी दरकार है।।

आदमी को आदमी ही मान लें।
बस सियासत से यही दरकार है।।

ऐ ख़ुदा तेरा करम, जो बख़्श दे।
क्या छुपी तुमसे कोई दरकार है।।

कब तलक तुकबन्दियाँ होंगी पवन ?
अब तो तुझसे शाइरी दरकार है।।

                     *डॉ पवन मिश्र*