Saturday 30 April 2016

ग़ज़ल- हमारी तरक्की से जलने लगा है


हमारी तरक्की से जलने लगा है।
पड़ोसी मेरा घात करने लगा है।।

रँगे हाथ उसको पकड़ जब लिया तो।
कहानी नई फिर वो गढ़ने लगा है।।

मेरे हौसलों से तो टकरा के यारों।
वो पत्थर भी देखो दरकने लगा है।।

जऱा सी चमक में कलम बेच के वो।
सियासत न जाने क्यूँ करने लगा है।।

बिठाया था दिल में जिसे हसरतों से।
नज़र से मेरी वो उतरने लगा है।।

मेरे मुल्क़ की नेकनीयत भुला के।
दिलों में जहर अब वो भरने लगा है।।

खियाबाँ को किसकी नज़र लग गयी अब।
कि गुल बाग़बाँ से ही डरने लगा है।।

                       ✍डॉ पवन मिश्र

खियाबाँ= बाग़        बाग़बाँ= माली

Thursday 28 April 2016

प्रमाणिका छन्द- जगो सपूत भूमि के


जगो सपूत भूमि के,
उठो कि शस्त्र चूमि के।

पुकारती तुझे धरा,
कि घाव है अभी हरा।

प्रहार वक्ष पे सहो,
अजेय भाव में बहो।

करो विनाश पाप का,
कि राष्ट्र धर्म आपका।

 ✍डॉ पवन मिश्र



Tuesday 26 April 2016

मुक्तक


कर लो कोशिश मगर याद मैं आऊंगा,
प्रीत की शबनमी बूँदें धर जाऊंगा।
चाहे कर लेना तुम लाख इन्कार पर,
आँख से बह के लब तक पहुँच जाऊँगा।।

इस जहाँ से भी आगे नगर एक है,
मिलना ही है हमें जब डगर एक है।
इश्क की राह में उस जगह आ गए,
ज़िस्म हैं दो सही जाँ मगर एक है।।

प्रीत के रीत की वाहिका तुम बनो,
पुन्य ये यज्ञ है साधिका तुम बनो।
डोर विश्वास की न ये टूटे कभी,
कृष्ण बन जाऊँगा राधिका तुम बनो।।


             ✍डॉ पवन मिश्र

Sunday 24 April 2016

ग़ज़ल- उन्हें देखकर दिल मचलने लगा है


उन्हें देखकर दिल मचलने लगा है।
उन्हीं के तसब्बुर में रहने लगा है।।

नज़र ढूँढती हर बशर में उन्हीं को।
फ़िज़ाओं में वो ही महकने लगा है।।

बहुत संगदिल मेरा दिलबर है लेकिन।
तपिश से मेरी वो पिघलने लगा है।।

नहीं चोर था उनके दिल में अगर तो।
दबे पाँव क्यूँ वो गुजरने लगा है।।

दुआऐं किसी की असर कर रही हैं।
ये देखो मेरा जख़्म भरने लगा है।।

मिला है पवन को तेरा साथ जब से।
ज़माना न जाने क्यूँ जलने लगा है।।

                    -डॉ पवन मिश्र
बशर= आदमी

Saturday 23 April 2016

ग़ज़ल- जिसे तुझसे मुहब्बत हो वो दीवाना किधर जाए


जिसे तुझसे मुहब्बत हो वो दीवाना किधर जाए।
खुदा तू ही दिखा रस्ता बता दे किस डगर जाए।।

बहुत बेज़ार कर डाला हमे तेरे तग़ाफ़ुल ने।
कहीं ऐसा न हो तेरा दिवाना अब बिखर जाए।।

तुझे ही जब नहीं फ़ुरसत मेरे गम को मिटाने की।
बुझाने तिश्नगी अपनी ये दीवाना किधर जाए।।

मेरी दुनिया मुकम्मल है उसी किरदार के कारण।
वही दिखता है अब हमको जहां तक भी नज़र जाए।।

बड़ी मुश्किल से आये आज वो मेरे बुलाने पर।
न आये कोई अब आफत कि दिन यूँ ही गुज़र जाए।।

वही रस्ता वही मंजिल वही हैं रहनुमा मेरे।
पवन की बस यही चाहत जिधर वो हों उधर जाए।।

                                       ✍डॉ पवन मिश्र

तग़ाफ़ुल= उपेक्षा          तिश्नगी= प्यास

Thursday 21 April 2016

ग़ज़ल- मेरी यादों में ख्वाबों में


मेरी यादों में ख्वाबों में हर बात में।
छा गए इस तरह तुम ख़यालात में।।

चाँद भी है यहां और तारे भी हैं।
एक तू ही नहीं साथ इस रात में।।

कुछ भी हासिल न होगा सिवा ख़ाक के।
क्यों बढ़ाते हो बातें यूँ तुम बात में।।

कारवां में सियासत के शामिल जो हैं।
मिल ही जायेगा कुछ उनको खैरात में।।

फ़िक्र करना नहीं लोगों की बात का।
ऐसे मेढ़क निकलते हैं बरसात में।।

जश्न में भूल जाना हमें चाहे तुम।
याद करना मगर हमको आफ़ात में।।
     
                             -डॉ पवन मिश्र

Sunday 3 April 2016

ग़ज़ल- क्या कहें किससे कहें


क्या कहें किससे कहें सुनता नहीं कोई।
ज़ख्म पे मरहम मेरे धरता नहीं कोई।।

भीड़ की नजरों का मैं हूँ मुंतज़िर कब से।
मुफ़्तकिर ऐसा हुआ रुकता नहीं कोई।।

आरज़ू किससे कहें तारीक जीस्त की।
रोशनी के ख़्वाब अब बुनता नहीं कोई।।

ख्वाहिशें ऐसी की सब गुलज़ार हो जाये।
बाग़ से काँटे मगर चुनता नहीं कोई।।

अर्श पे जो था परिंदा फ़र्श पर अब है।
वक्त की चाबुक से तो बचता नहीं कोई।।

वोट की खातिर करे है रहनुमाई वो।
मुल्क की बातें यहाँ करता नहीं कोई।।

बुलहवस अब हो गया इंसान भी गोया।
बेवज़ह सजदे में अब झुकता नहीं कोई।।

                                 -डॉ पवन मिश्र

मुफ़्तकिर= दरिद्र, कंगाल       मुंतज़िर= प्रतीक्षारत
तारीक= अंधकारमय            ज़ीस्त= जिंदगी
बुलहवस= लालची                गोया= मानो