Saturday 21 November 2020

ग़ज़ल- ये नहीं के हम ही सकुचाये बहुत

 

ये नहीं के हम ही सकुचाये बहुत

वो भी हमको देख शरमाये बहुत


थम गए लब रू-ब-रू जब वो मिले

बात फिर नजरों ने की हाए बहुत


आरिज़-ओ-लब तक जब आये अश्क़ तो

उस घड़ी फिर याद तुम आये बहुत


हिचकियों ने मानों मरहम दे दिया

दर्द भूले ज़ख़्म, मुस्काये बहुत


ज़िंदगी भर ख़ार ही ढोये मगर

फूल मेरी कब्र पे आये बहुत


जब भी उसने साजिशन जुमले गढ़े

लोग उसकी बातों में आये बहुत


काफ़िले में यूँ तो थे साथी कई

रास लेकिन तुम हमें आये बहुत


                 ✍️ डॉ पवन मिश्र