Sunday 17 December 2023

ग़ज़ल- कुछ न कारोबार है तेरे बग़ैर

कुछ न कारोबार है तेरे बग़ैर
बे-मज़ा इतवार है तेरे बग़ैर

रंग होली का न दीवाली का नूर
सूना हर त्यौहार है तेरे बग़ैर

आ भी जा अब दिल नहीं लगता कहीं
यार ये बेज़ार है तेरे बग़ैर

किसके कांधे पर रखूं सर बोल दे
कौन याँ गमख़्वार है तेरे बग़ैर

धार की मर्जी से ही बहना है अब
नाव बे-पतवार है तेरे बग़ैर

तुझसे ही था जीत का इक हौसला 
अब तो केवल हार है तेरे बग़ैर

दिन तो दिन है जागना उसकी नियति
रात भी बेदार है तेरे बग़ैर

ज़ुल्मत-ए-शब की कहे किससे पवन
चांदनी अंगार है तेरे बग़ैर

✍️ डॉ पवन मिश्र

Monday 27 November 2023

ग़ज़ल- ग़मों से जुड़ गया रिश्ता हमारा

ग़मों से जुड़ गया रिश्ता हमारा
कि तुम ने साथ जब छोड़ा हमारा

तुम्हारे बिन अजब सी कशमकश है
कहीं भी दिल नहीं लगता हमारा

गए हो जबसे हमको छोड़कर तुम
बहुत सूना हुआ कमरा हमारा

सभी चर्चा हमारा ही करेंगे
किसी से पूछ लो किस्सा हमारा

तुम्हें क्या याद हैं बातें हमारी
तुम्हे क्या याद है रस्ता हमारा

चले आओ तो बाकी शेर कह लें
अकेला है बहुत मतला हमारा

पवन है बस यही अफ़सोस हमको
अधूरा रह गया किस्सा हमारा

हमें मंज़िल पे पहुंचाता है लेकिन
कहीं जाता नहीं रस्ता हमारा

✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday 14 October 2023

गीत- स्नेह सम्मिलन ५

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।

राम-लखन का रस्ता देखें, ज्यों शबरी के बेर।।

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।


एक वर्ष के बाद आई है, नेह-मिलन की वेला।

हरियाणा में खूब सजेगा वाणीजन का मेला।।

लोकगीत की धुन पर सारे नाचेंगे-झूमेंगे।

ज्वार बाजरा ग्वार फली का स्वाद सभी चक्खेंगे।।

जल्दी से अब टिकट करा लो हो न जाये देर।

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।


पहली बार किशनपुर वाले भूल गए क्या वो पल,

एकडला के गन्नों का रस वो यमुना का कल-कल।

याद नहीं क्या प्रथम मिलन की नेह भरी वो बतिया,

जौ मकई की सोंधी रोटी वो अमरूद की बगिया।।

वाणी के उस प्रथम मंच से खूब दहाड़े शेर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।


दूजी बार गए ददरा अब्दुल हमीद के गांव,

अबकी बार थी अमराई और उसकी ठंडी छाँव।

चटक धूप में सभी मगन थे नेह की चादर ताने,

ढोल मंजीरे से उल्लासित कजरी के दीवाने।।

उमड़ घुमड़ कर वही भाव फिर हमें रहा है टेर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।


उसके बाद सभी वाणीजन पहुंचे थे इक मरुथर,

कुछ ने पकड़ी ट्रेन हावड़ा कुछ ने थामी मरुधर।

ग्राम उदासर ने अद्भुत सत्कार किया था सबका,

राजस्थानी भोजन था और था वाणी का तबका।।

अद्भुत मंच सजा था उस दिन नगर था बीकानेर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।


याद करो वो चौथी बारी, गंगा तट का रंग

बाबा भोले की नगरी में हुआ था जब हुड़दंग।

कतकी मेला के पहले ही मिले थे जब दीवाने,

शमा जलाने स्नेह मिलन की आए थे परवाने।।

ढोल-मँजीरा हरमोनियम को, बैठे थे सब घेर।

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।

राम-लखन का रस्ता देखें, ज्यों शबरी के बेर।।

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा भिवानी हेर।।


                                  ✍ डॉ पवन मिश्र


Monday 9 October 2023

ग़ज़ल- जीवन तुमसे ही है मधुबन

जीवन तुमसे ही है मधुबन
वरना तो है निर्जन कानन

एक तरफ है सारी दुनिया
एक तरफ है तुम सँग जीवन

तेरी एक छुवन से प्रियतम
तन-मन हो जाता चन्दनवन

याद तुम्हारी जब आती है
आंखों से झरता है सावन

दरवाजे की हर आहट पर
बढ़ जाती है हिय की धड़कन

रूप अनूप नहीं है लेकिन
प्रेम पवन का निश्छल पावन

✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday 7 October 2023

ग़ज़ल- उलझन, तड़पन, विलपन, क्रंदन

उलझन, तड़पन, विलपन, क्रंदन 
निर्धन का बस इतना जीवन

भरी जेब वाले क्या जानें
खाली जेबों का भारीपन

बारिश की बूंदें जब आतीं
याद बहुत आता है बचपन

हाथ बढ़ाकर इन शहरों ने
गांव किये हैं लगभग निर्जन

दरवाजे की रौनक गायब
खाली खूंटा ढूंढे गोधन

उम्र बढ़े ज्यों-ज्यों बच्चों की
बँटता जाता घर का आँगन

✍️ डॉ पवन मिश्र

Friday 6 October 2023

ग़ज़ल- उम्र भर द्वेष-राग रखते हैं

उम्र भर द्वेष-राग रखते हैं
लोग दिल में दिमाग रखते हैं

पास आकर समझ सकोगे तुम
फूल हैं हम पराग रखते हैं

तेरे गुण-दोष से परे हैं हम
हम वो चंदन जो नाग रखते हैं

भारती के सपूत हैं हम तो
अपने चिंतन में त्याग रखते हैं

साथ रहते हैं मां-पिता के हम
घर मे काशी-प्रयाग रखते हैं

पल में लोहे को भी जो पिघला दे
हौसलों की वो आग रखते हैं

✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday 5 October 2023

ग़ज़ल- इश्क़ की गलियों में आवारों के बीच

इश्क़ की गलियों में आवारों के बीच
फँस गया आकर मैं बीमारों के बीच

आशिकों की भीड़ में रहना है अब
रतजगे करने हैं बेदारों के बीच 

ओढ़ ली खादी मगर हूँ सोचता
कैसे रह पाऊंगा अय्यारों के बीच

आस्तीं में सांप ढेरों पल रहे
जी रहा हूँ उनकी फुंकारों के बीच

अपनी वो आलोचना कैसे सुने
वो तो बैठा है परस्तारों के बीच

अब चमन में अम्न होना चाहिये
आ रहे हैं फूल तलवारों के बीच

जिस घड़ी सर पेश कर देगा पवन
होड़ मच जाएगी दस्तारों के बीच

✍️ डॉ पवन मिश्र

बेदारों- जिन्हें नींद न आती हो, जगे हुए
परस्तारों- प्रशंसको
दस्तारों- दस्तार (पगड़ी) का बहुवचन

Sunday 1 October 2023

ग़ज़ल- वो लड़की करीब और आने लगी

वो लड़की करीब और आने लगी
मेरी धड़कनों में समाने लगी

ठिठुरती हुई रात बेबस बनी
वो सांसों से सांसे मिलाने लगी

बरसने को मुझपे वो तैयार है
घने मेघ सी नभ पे छाने लगी

न मैकद न सागर न कोई सुबू
लबों से ही मय वो पिलाने लगी

मुहब्बत का ऐसा हुआ है असर
मेरे गीत वो गुनगुनाने लगी

नहीं उसके जैसा कोई दूसरा
मेरी दीद मुझको बताने लगी

मिला साथ उसका है जबसे सुनो
मुझे जिंदगी रास आने लगी

सफर में बढ़ी धूप जैसे ही कुछ
अचानक ही मां याद आने लगी

ख़यालों में मेरे वो आकर पवन
हसीं एक दुनिया बसाने लगी

✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday 9 September 2023

ग़ज़ल- विरह के ताप से मुझको जरा आराम दे दें

 विरह के ताप से मुझको जरा आराम दे दें

मेरे ईश्वर मुझे अब तो मेरा घनश्याम दे दें


हमारे दरमियाँ जो है उसे अंजाम दे दें

चलो दुनिया की ख़ातिर ही अब इसको नाम दे दें


बड़ी उम्मीद से आया हूँ अपनी प्यास लेकर

गुज़ारिश है मुझे भी साग़र-ए-ज़रफ़ाम दे दें


ख़ता किसकी रही किसकी नहीं अब छोड़िए भी

हमारा सर ये हाज़िर है इसे इल्ज़ाम दे दें


अना को छोड़कर आओ सजाएं फिर चमन को

गुलों को रंग-ओ-बू दे दें सुहानी शाम दे दें


चरागों की हिफ़ाज़त में लगे हैं आज से हम

हवाओं को हमारा आप ये पैगाम दे दें


✍️ डॉ पवन मिश्र

Friday 11 August 2023

रोला- हारे का हरिनाम

हारे का हरिनाम, सहारा बन जाता है।

किंतु मित्र यह भाव, कर्म से विलगाता है।

सोचो, करो विचार, हार का कारण क्या है?

क्या है इसका साध्य, और निस्तारण क्या है?१?


कर्महीन के पास, बहाने लाखों होते।

आलस में दिन-रात, काटते रोते-रोते।

कुंठित और निराश, मनुज कब सुख पाते हैं।

दुख की चादर तान, डूबते उतराते हैं।२।


मात्र एक है मंत्र, लक्ष्य तक जो पहुँचाए।

कर्मशील इंसान, संकटों से भिड़ जाए।

आशाओं का दीप, जलाकर रखना होगा।

कुंदन की है चाह, अगर तो तपना होगा।३।


दुख की काली रात, बीतने को है साथी।

थोड़ा और प्रयास, बचा लो बुझती बाती।

अंतस का विश्वास, तुम्हारे दुख हर लेगा।

सुख का नवल प्रभात, द्वार पर दस्तक देगा।४।


✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 6 August 2023

ग़ज़ल- आया तो क्या

साथ लेकर यार बाद-ए-नौ-बहार आया तो क्या

टूटने को सांस थी तब ग़म-गुसार आया तो क्या


जान ही बाकी नहीं जब जाँ-निसार आया तो क्या

जल गया गुलशन तो फिर अब्र-ए-बहार आया तो क्या


दफ़्न कर दीं आरजू सब दर से उनके लौट कर

बाद मेरे उनको मुझपे एतिबार आया तो क्या


क्या जरूरी है सभी को इश्क़ में मंजिल मिले

मेरे हिस्से में फ़कत ये इंतिज़ार आया तो क्या


अब भला आए हो क्यों तुम हाल मेरा पूछने

घुट गईं जब चाहतें तब इख़्तियार आया तो क्या


जब अदब है ही तअस्सुर ढाल देना हर्फ़ में

गीत-ग़ज़लों में मेरे फिर ज़िक्र-ए-यार आया तो क्या


उम्र भर मिलने न आया इक दफ़ा भी वो पवन

कब्र पे फिर फूल लेकर बार बार आया तो क्या


✍️ डॉ पवन मिश्र


बाद-ए-नौ-बहार- बसन्त ऋतु की शीतल सुगन्धित हवा

ग़म-गुसार- सहानुभूति प्रकट करने वाला

जाँ-निसार- प्राण न्यौछावर करने वाला

अब्र-ए-बहार- बसन्त ऋतु का मेघ

इख़्तियार- अधिकार क्षेत्र, नियंत्रण

अदब- साहित्य

तअस्सुर- मनोभाव

हर्फ़- शब्द




Sunday 23 July 2023

गीत- सावन बीता जाए

गीत- सावन बीता जाए

सावन बीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए

तपता जेठ जलाता था तन
विरह अगन झुलसाती थी मन
उम्मीदों में दिन काटे थे
गलबहियों में सन्नाटे थे
जेठ बिताया तपते-तपते
आषाढ़ी भी रस्ता तकते
लेकिन अब तो सावन है जी
बरखा भी मनभावन है जी
तपती भू पर भगवन बरसे
मेरे नयना फिर भी तरसे
बोलो साजन कब आओगे
जीवन रीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए

जब से सावन ऋतु आई है
सारी धरती हरियाई है
महक रही डारी-डारी
फूल रही हैं सब फुलवारी
लेकिन मेरा आंगन सूना
पिय के बिन यह सावन सूना
सूना घर है सेज है सूनी
तकिया ही बस है बातूनी
मन ही मन हम रो लेते हैं
सुधियों में ही खो लेते हैं
बेकल हिरदय जोहे तुमको
आंसू पीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए
पिया बिन
जीवन रीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए

✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday 22 July 2023

निबंध- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद- चुनौतियां और हमारी भूमिका

 सांस्कृतिक राष्ट्रवाद- चुनौतियां और हमारी भूमिका


राष्ट्र एक अमूर्त संकल्पना है, जो किसी क्षेत्र के विभिन्न समूहों को साझे लक्ष्यों, विचारधारा व परम्परा से जोड़ती है। किसी राष्ट्र का शक्तिशाली या कमजोर होना इस बात पर निर्भर करता है कि वहां के निवासी अपने राष्ट्रीय हितों के लिये कितना समर्पित हैं? रंग, जाति, क्षेत्र, परम्परा और धर्म से विभेदित समाज को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का मूल मंत्र है 'राष्ट्रवाद'।

            यह विशुद्ध रूप से एक भाव है जो व्यक्ति के भीतर राष्ट्र की भावना को बलवती करता है और इस अनुभूति का सर्वोत्तम रूप है, 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'। वैसे तो राष्ट्र को जोड़ने वाले कई तत्व हो सकते हैं- आर्थिक हित, राजनीतिक विचारधारा, विभिन्न सामाजिक एवम् सांस्कृतिक विशेषताएं किंतु इनमें से संस्कृति सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी होती है। संस्कृति, सभ्यता को प्रकाशित करने वाला एक तत्व है। यह शारीरिक एवम् मानसिक अभिवृत्तियों को सशक्त करने का माध्यम है। संस्कृति एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र से, एक समूह से दूसरे समूह को, एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से उनकी व्यक्तिनिष्ठता को बनाये रखते हुए सर्वनिष्ठ हितों की प्राप्ति हेतु उन्हें मज़बूती से जोड़ती है और यह जुड़ाव ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति का आधार है। जिसमें राष्ट्र को जाति, धर्म, क्षेत्र, परम्परा आदि के अलगाव की बजाय एक साझी संस्कृति के रूप में निरूपित किया जाता है, चित्रित किया जाता है। इसमें किसी भी राष्ट्र की विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज, परंपराओं आदि का रक्षण करते हुए उन्हें एकीकृत रूप से पुष्ट होते हुए देखा जाता है।

 सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक ऐसी विचारधारा है जो व्यक्तियों के सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व देती है तथा यह किसी भी राष्ट्र की अभिवृद्धि का एक प्रमुख कारक है। दूसरे अर्थों में यह समझा जा सकता है कि यह हमारे शरीर के मस्तिष्क की तरह ही होता है जो विभिन्न अंगों को जोड़कर शरीर को एक इकाई के रूप में संगठित रखने का कार्य करता है। विविधता राष्ट्र का आवश्यक अंग है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उसके वासियों को सांस्कृतिक रूप से एकता की अनुभूति कराने का एक सशक्त उपकरण है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद विभिन्न सांस्कृतिक समूहों को संगठित कर राष्ट्र की परिकल्पना को बल प्रदान करता है।

            जब एकीकरण की इस अनुभूति को हम भारत के संदर्भ में देखते हैं तो यह और भी व्यापक हो जाता है। क्योंकि भारत की संस्कृति के मूल में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का भाव है। अतः इसका परिदृश्य वैश्विक हो जाता है। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः' की विचारधारा वाले भारत के संदर्भ में यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पुष्ट कर लिया जाए तो यह मात्र भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व के कल्याण के पथ को प्रशस्त करेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार भी आदर्शतम राष्ट्र की जो परिकल्पना की गई है उस के सारे तत्व भारतीय संस्कृति में अंतर्निहित हैं, सहज उपलब्ध हैं। एक यूरोपियन दार्शनिक हुए हैं सन्नेरात, उनके स्प्ष्ट विचार हैं कि 'भारत के अतिरिक्त पूरे विश्व मे रखा ही क्या है? भारत के बिना यह विश्व मात्र एक ठूँठ है, ठूँठ।' इसीलिये जब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के माध्यम से भारत के सशक्तिकरण की बात करते हैं तो यह आवश्यक है कि हम इसे मात्र अपने तक सीमित करने की बजाय इसकी सार्वभौमिकता पर दृष्टि करें। हमारे वेद 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' की बात करते हैं। हम पूरे विश्व को जातिगत आधार पे ब्राह्मण बनाने की बात नहीं करते, हम सभी को हिन्दू बनाने की बात नहीं करते, हम किसी पंथ या सम्प्रदाय के विस्तारीकरण की बात नहीं करते। वरन हम सभी को श्रेष्ठ बनाने का विचार रखते हैं। हम पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाने की बात करते हैं। क्योंकि जब सभी श्रेष्ठ होंगे तो मार्ग की तुच्छ नकारात्मक चीजें स्वतः धूमिल हो जाएंगी। 

                  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मार्ग में ढेरों चुनौतियां भी हैं। स्प्ष्ट रूप से प्रथमतः जो दिखता है, वह है विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक समूहों में मतभेद और इसका प्रमुख कारण यह है कि सामान्यतः लोग इस सिद्धांत की मूल आत्मा को समझने में ही असफल रहे हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में निश्चित रूप से अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा का भाव है परन्तु दूसरी संस्कृतियों के प्रति इसमें घृणा नहीं है। सामान्यतः लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में अपनी संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों के साथ टकराव के रूप में देखते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि जब दो संस्कृतियां मिलें, दोनों संस्कृतियों के अच्छे मूल्यों को आत्मसात किया जाए और जब ऐसा होगा तो आपसी टकराहट का प्रश्न ही नहीं उठेगा। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बहाने यदि आपसी विद्वेष को बढ़ावा मिल रहा हो तब चुनौती बहुत बड़ी हो जाती है। विशेषकर तब, जब नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ किसी पक्ष, किसी विचारधारा के छिद्रान्वेषण में कुछ शक्तियां लगी हों। 

चूंकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, अपनी संस्कृति की बात करता है तो एक और बहुत बड़ी चुनौती परम्परागतता और आधुनिकता के बीच के टकराव की आती है। 

इसके इतर धार्मिक और साम्प्रदायिक मतभेद की चुनौतियों के साथ-साथ राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मार्ग के कुछ और प्रमुख अवरोधक है। 

यह निश्चित मानिए कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही हमारा भविष्य है। इस विचारधारा को पुष्ट करने हेतु हमें ढेरों प्रयास करने होंगे। हमारी भूमिका सदा ही सकारात्मक रहनी चाहिये। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दर्शन का एक गूढ़ विषय है अतः अपनी संस्कृति के वास्तविक मूल्यों को पहले हमें स्वयं समझना होगा, उपनिषदों के मूल तत्व को आत्मसात करना होगा। हम सभी जानते हैं, 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे'। अतः जिस पथ, जिस विचारधारा के हम समर्थक हैं उसका स्वयं ही अनुसरण करना होगा, उसके मूल विचार को आत्मसात करना होगा। वैश्वीकरण के इस युग में जब बाजारवाद हावी होता जा रहा है, हमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रसार के नए तरीके तलाशने ही होंगे जिनके मूल में समरसता का भाव हो। तब जाकर हम उदात्त भाव से जनमानस में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीज का रोपण कर सकेंगे और इसके लिए आवश्यक यह है कि हम अपनी जड़ों को मजबूत करें। क्योंकि जब जड़ें मजबूत होंगी तभी हम दृढ़ होंगे और स्वयं को स्पष्टतः अभिव्यक्त कर पाएंगे। तब जाकर हम भारत के संदर्भ में 'विश्व गुरु' की जो परिकल्पना है उसे मूर्त रूप दे पाएंगे। अतः हमारी भूमिका इस हेतु और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। हमें हमेशा यह भान रहना चाहिये कि 'वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।'


       शक्ति शौर्य सामर्थ्य का, होगा प्रादुर्भाव।

      जनमानस में जब जगे, राष्ट्रवाद का भाव।।


✍️ डॉ पवन मिश्र

     कानपुर, उ0प्र0

Sunday 16 July 2023

दोहे- राष्ट्र

शक्ति शौर्य सामर्थ्य का, होगा प्रादुर्भाव।
जनमानस में जब जगे, राष्ट्रवाद का भाव।१।

जाति धर्म औ देश से, बड़ा राष्ट्र का रूप।
लेकिन मेढ़क क्या करे, वो जाने बस कूप।२।

राष्ट्र एक संकल्पना, एक प्रबुद्ध विचार।
अंतस के विस्तार से, होगा यह साकार।३।

भौगोलिक सीमा नहीं, नहीं राष्ट्र इक क्षेत्र।
संस्कृति ही तो राष्ट्र है, खोलो अपने नेत्र।४।

पूरी वसुधा एक है, मानवता है धर्म।
सबके सुख की कामना, है भारत का मर्म।५।

✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 9 July 2023

ग़ज़ल- ईंट-गारा बचा मकानों में

ईंट-गारा बचा मकानों में
और क्या रह गया मकानों में

जबसे बच्चे बड़े हुए तब से
छोटा आंगन हुआ मकानों में

सबने ऊंची बना लीं दीवारें
कैसे आये सदा मकानों में

खुद के भीतर न झांक पाए और
ढूंढते हैं ख़ुदा मकानों में

उनको फुर्सत न थी ज़माने से
मैं भी उलझा रहा मकानों में

सारे रिश्ते गँवा के जाना है
कुछ नहीं है रखा मकानों में

कुछ दरिंदों ने नोंच ली कलियां
देश सोता रहा मकानों में

✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 11 June 2023

ग़ज़ल- मुहब्बत में उदासी हिज़्र तन्हाई ही पाए हैं

 मुहब्बत में उदासी हिज़्र तन्हाई ही पाए हैं

यही गर्द-ए-सफ़र हम आज अपने साथ लाए हैं


ख़ुलूस-ए-यार मिल जाता तो भी कुछ सब्र हो जाता

मगर राह-ए-मुहब्बत से तही दस्त आज आए हैं


न छेड़ो दास्तां कोई अभी सब ज़ख्म हैं ताजे 

बड़ी मुश्किल से हमने अश्क़ आंखों में छुपाए हैं


पुराने ख़त, ये सूखे फूल, ये तस्वीर के टुकड़े

तुम्हें हम याद रखने के बहाने ढूंढ लाए हैं


सुना है बज़्म में तेरी हजारों लोग हैं लेकिन

हमारे दश्त में तो बस तेरी यादों के साए हैं


सबब तुमको मुहब्बत का बताएं और क्या यारो

जिन्हें चाहा था शिद्दत से उन्हीं के हम सताए हैं


✍️ डॉ पवन मिश्र


हिज़्र- जुदाई

गर्द- धूल

ख़ुलूस- निष्कपटता, हार्दिक सम्बन्ध

तही- खाली

दस्त- हाथ

बज़्म- महफ़िल

दश्त- निर्जन स्थान, बयाबान, जंगल

ग़ज़ल- बनाया रहनुमा जिनको उन्हीं के हम सताए हैं

बनाया रहनुमा जिनको उन्हीं के हम सताए हैं

जिताया था जिन्हें हमने उन्हीं से मात खाए हैं


जुगलबंदी सियासत में अजब सी हो रही देखो

जो कल तक धुर विरोधी थे वही सब साथ आए हैं


क़ज़ा आएगी जब मिलने नुमायां हो ही जायेगा

जिन्हें अपना समझते हो वो सब के सब पराए हैं


इन्हें कमतर समझकर ज्ञान देना भूल ही होगी

ये बच्चे आजकल के दौर के सीखे सिखाए हैं


बड़े जबसे हुए बच्चे बहुत सँकरा हुआ आंगन

अजब हालात बूढ़े बाप के जीवन में आए हैं


करोना और उसपे शह्र की बेदर्द दीवारें

तभी तो गांव के कच्चे घरौंदे याद आए हैं


अक़ीदत है इबादत है मुहब्बत एक नेमत है

मगर वहशी दरिंदों ने इसे नश्तर चुभाए हैं


✍️ डॉ पवन मिश्र


क़ज़ा- मृत्यु

नुमायां- स्पष्ट

अक़ीदत- भरोसा

इबादत- प्रार्थना


Monday 8 May 2023

ग़ज़ल- अभी मंजिल कहाँ ? रस्ता बहुत है

अभी मंज़िल कहाँ ? रस्ता बहुत है
अभी आगाज़ है, चलना बहुत है

फ़कत पतवार थामा है अभी तो
थपेड़ों से अभी लड़ना बहुत है

खुदी पर है नहीं जिसको भरोसा
मुसीबत देखकर रोता बहुत है

समझ पाया नहीं ऐ इश्क़ तुझको
तेरा किरदार पेचीदा बहुत है

निभेगा किस तरह बोलो ये रिश्ता
हमारे दरमियां पर्दा बहुत है

चलो झूठा दिलासा ही सही पर
कभी तो बोल दो चाहा बहुत है

छुपा लेता हूँ अश्कों को मगर सुन
तेरा जाना मुझे चुभता बहुत है

सफ़र के अंत में जाना पवन ने
मिला कुछ भी नहीं खोया बहुत है

                  ✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 23 April 2023

गीत- गर्मी और किसान

गीत-


चैत्र माह बीता है लेकिन मानो जैसे जेठ आ गया

बदरा दुबके डर के मारे प्रखर सूर्य चहुँओर छा गया

खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है

बीच-बीच में गमछे से वो बहा पसीना पोछ रहा है।

खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है।।


भीषण गर्मी तन झुलसाए दुपहरिया भी है धूप भरी

सूर्य किरण से ताप ग्रहण कर गेहूं बाली हुई सुनहरी

तन जलता है हरिया का पर मन हर्षित है खेत देखकर

फिर भी कुछ तो है ऐसा जो भीतर-भीतर नोंच रहा है

खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है


अम्बर से है आग बरसती सूख रहे सब ताल-तलैया

पशु-पक्षी भी व्याकुल फिरते ठौर कहीं ना मिलता भैया

लेकिन हरिया कैसे कह दे ? हे ईश्वर बरसाओ पानी

पकी फसल तैयार खड़ी वह मन ही मन संकोच रहा है

खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है


लेकिन आखिर इतनी गर्मी ? किसकी गलती, कौन बताए ?

गांवों में भी शहर घुस गया कंकरीट के जंगल छाए

मौसम के ताने-बाने को आखिर किसने क्षय कर डाला ?

ढेरों ऐसे प्रश्न लिये वो उत्तर खुद में खोज रहा है

खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है


तभी अचानक दूर गगन में काले काले घन गहराए 

हरिया का हिय कांप उठा फिर बारिश आयी ओले आए

पशु पक्षी तो नाच रहे पर कलप रही है फसल बिचारी

भीतर तक वो टूट गया अब बहते आंसू पोछ रहा है

खेत किनारे बैठा हरिया, जाने क्या-क्या सोच रहा है।।

बीच-बीच में गमछे से अब बहते आंसू पोछ रहा है।।


                                      ✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 12 February 2023

ग़ज़ल- विचारों को युवा गर जाफ़रानी कर नहीं पाया

विचारों को युवा गर जाफ़रानी कर नहीं पाया

तो समझो फिर जवानी को जवानी कर नहीं पाया


वो इक दफ़्तर का बाबू चाय-पानी कर नहीं पाया

अधूरी फाइलों पर मेहरबानी कर नहीं पाया


कई हल थे इशारों में जो कातिब ने किए दिन भर

वो फरियादी मगर कुछ तर्जुमानी कर नहीं पाया


खपा डाला बदन अपना, पसीने से बहुत सींचा

मगर मुफ़लिस बिचारा खेत धानी कर नहीं पाया


रदीफ़-ओ-काफ़िया-ओ-बह्र शायद जोड़ लेता हूँ

मगर लगता है अब तक शेर-ख़्वानी कर नहीं पाया


✍️ डॉ पवन मिश्र


जाफ़रानी= केसरिया

कातिब= लिपिक, क्लर्क

तर्जुमानी= अनुवाद

मुफ़लिस= गरीब

शेर-ख़्वानी= शेर कहना

ग़ज़ल- तुम्हारे नाम मैं अपनी जवानी कर नहीं पाया

तुम्हारे नाम मैं अपनी जवानी कर नहीं पाया

मैं मीरा की तरह खुद को दीवानी कर नहीं पाया


वो मेरी ख़ामुशी की तर्जुमानी कर नहीं पाया

बहुत मजबूर मैं भी था ज़बानी कर नहीं पाया


यही अफ़सोस मुझको उम्र भर होगा मेरी जानां

तुम्हारी राह में मैं गुल-फ़िशानी कर नहीं पाया


बड़ी खुशियां थीं दामन में मगर कुछ दिन ही बस ठहरीं

सलीके से मैं शायद मेज़बानी कर नहीं पाया


नये रिश्ते नई बातों में ही उलझा रहा केवल

वो मुझ सँग बैठकर बातें पुरानी कर नहीं पाया


कभी तो लौट कर आएगा वो फिर से पनाहों में

इसी उम्मीद से नक़्ल-ए-मकानी कर नहीं पाया


यही अफ़सोस मुझको उम्र भर होगा मेरी जानां

हमारे वाक़ये को मैं कहानी कर नहीं पाया


✍️ डॉ पवन मिश्र


तर्जुमानी= अनुवाद

गुल-फ़िशानी= फूल बिखराना

नक़्ल-ए-मकानी= कहीं और बस जाना/चले जाना


Monday 23 January 2023

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर (मनहरण घनाक्षरी)


मां भारती के पुत्र को, धैर्य के समुद्र को।

क्रांतिकारियों के आशुतोष को नमन है।

रण से जो भगा नहीं, क्षण भर डरा नहीं।

ऐसे सिंह शावक के, जोश को नमन है।

एक-एक जोड़कर, जिसने असंख्य किये।

जय हिन्द के उस, घोष को नमन है।

वीरगति पाने वाले, जग में छा जाने वाले।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को नमन है।।


✍️ डॉ पवन मिश्र

Tuesday 17 January 2023

ग़ज़ल- जीना अब दुश्वार हुआ है

जीना अब दुश्वार हुआ है
सब कहते हैं प्यार हुआ है

शक-ओ-शुब्हा की बात नहीं अब
आंखों से इकरार हुआ है

उनके पैरों की दस्तक से
हर ज़र्रा गुलज़ार हुआ है

इश्क़, इबादत, नेकी अब तो
लोगों का व्यापार हुआ है

राजनीति के दाँव-पेंच से
लोकतंत्र लाचार हुआ है

शादी लायक छुटकी भी अब
होरी फिर लाचार हुआ है

     ✍️ डॉ पवन मिश्र

Friday 13 January 2023

ग़ज़ल- आओ फिर से बात करें

 कब तक बैठें दोनों गुमसुम आओ फिर से बात करें

हो जाएं इक दूजे में गुम आओ फिर से बात करें


कोई और नहीं आएगा रिसते घावों को भरने

किसका रस्ता देखें हम तुम आओ फिर से बात करें


अँधियारे ने पांव पसारा राहें दिखती हैं काली

उन राहों में भर दें अंजुम आओ फिर से बात करें


खामोशी की चादर ओढ़े इक दूजे को देख रहे

कब तक झेलें यार तलातुम आओ फिर से बात करें


कितनी बातें होती थीं तब छोटी-छोटी रातों में

दुहरायें वो दौर-ए-तकल्लुम आओ फिर से बात करें


✍️ डॉ पवन मिश्र


अंजुम- सितारे

तलातुम- बेचैनी

दौर-ए-तकल्लुम- वार्तालाप का दौर