Sunday 16 December 2018

ग़ज़ल- बन के जुगनू जगमगाना चाहिये



तीरगी में गर उजाला चाहिये।
बन के जुगनू जगमगाना चाहिये।।

गर ये चाहत है, किनारा चाहिये।
हौसलों को आजमाना चाहिये।।

पेचो ख़म माना बहुत हैं इश्क़ में।
फिर भी सबको इश्क़ होना चाहिये।।

जब दीवारें बोलने घर की लगें।
दोस्तों को घर बुलाना चाहिये।।

दो कदम क्या, चार चल कर आऊंगा।
पर तुम्हे भी ये सलीका चाहिये।।

सख़्त हाथों से नही रिश्ते बनें।
ज़रकशी जैसा सलीका चाहिये।।

टूटकर वो भी मिलेगा धूल में।
ख़ार को भी ये समझना चाहिये।।

आज भी रोटी की ही जद्दोजहद ?
रहनुमा को डूब मरना चाहिये।।

गर्द जिनके जम गई किरदार पर।
आइना उनको दिखाना चाहिये।।

कब तलक यूँ शेर जोड़ोगे मियां।
अब ग़ज़ल में वज़्न आना चाहिये।।

                ✍ *डॉ पवन मिश्र*
तीरगी= अंधेरा
पेचो ख़म= कठिनाइयाँ
ज़रकशी= सोने-चांदी के तारों से होने वाला काम
ख़ार= काँटा

Sunday 2 December 2018

नवगीत- तुम जयघोष समझ बैठे



वेद ऋचाएं अपमानित कर,
कुल को शापित कर बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।।
तुम जयघोष समझ बैठे।।

मेरा क्या मैं तो वैरागी,
हर दुख-सुख में, मैं प्रतिभागी।
धन-पद की भी चाह नहीं है,
नेह मिलन का मैं अनुरागी।
मैं अपनों सँग मस्त पड़ा था,
तुम बेहोश समझ बैठे।।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।१।

माना हर मोती तुम लाये,
चाटुकार भी कुछ बुलवाये।
प्रेम तन्तु से हमने गूंथा,
तब मोती माला में आये।
मैं रिश्तों का गर्वित माथा,
तुम अफ़सोस समझ बैठे।।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।२।

मन मन्दिर में तुम्हे बिठाकर,
तुम पर सारा नेह लुटाकर।
सोच रहा मैं आज अकिंचन,
क्या पाया है तुमको पाकर।
नकली नोटों के गठ्ठर को,
तुम अधिकोष समझ बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।३।

चौसर तेरी प्यादे तेरे,
राहु केतु बन करते फेरे।
द्रोण, भीष्म औ विदुर मौन हैं,
पांडु पुत्र को कौरव घेरे।
शकुनी की चालें ना समझीं,
मेरा दोष समझ बैठे।
और सियारी हुआँ हुआँ को,
तुम जयघोष समझ बैठे।४।

डॉ पवन मिश्र