Monday 21 November 2016

ग़ज़ल- सूखे फूल


सूखे फूल किताबों में जब मिल जाते हैं ।
यादों से तब खुशबू के झोंके आते हैं।।

अपलक तकते रहते हैं जो राह तुम्हारी।
उन पलकों की कोरों को नम कर जाते हैं।।

हर आहट तेरा ही भान कराती हमको।
अक्सर परछाईं से जाकर टकराते हैं।।

अश्क़ छिपा कर हँसकर मिलते हैं वो हमसे।
छुप कर उन नजरों से हम भी रो आते हैं।।

सुर्ख लबों की किस्सा गोई हमसे पूछो।
मय तो है बदनाम होंठ ही बहकाते हैं।।

सब कुछ ले लो इन सूखे फूलों के बदले।
बेज़ार पवन को ये ही तो महकाते हैं।।

                         ✍ डॉ पवन मिश्र
सुर्ख़= लाल
मय= शराब

Sunday 6 November 2016

ग़ज़ल- पवन खुली किताब है, किताब देखते रहो


ज़लील रहनुमाओं के नक़ाब देखते रहो।
दिखा रहे तुम्हे जो ये सराब देखते रहो।।

छुरी छिपा के दिल में ये ज़ुबाँ के खेल से ही बस।
चुकाते किस तरह से हैं हिसाब देखते रहो।।

लगेगा हाथ कुछ नहीं यहाँ सिवाय ख़ाक के।
है लुत्फ़ तुमको ख़्वाब में तो ख़्वाब देखते रहो*।।

सवाल हैं वही मगर सिखाती जिंदगी यही।
बदलते दौर में नए जवाब देखते रहो।।

हरिक तरह का है चलन जमाने के रिवाज़ में।
ये कैसी बेरुखी कि बस खराब देखते रहो।।

खिली सी धूप को लिये वो सुब्ह फिर से आयेगी।
कि तब तलक फ़लक पे माहताब देखते रहो।।

नहीं है पास कुछ मेरे वफ़ा के नाम के सिवा।
पवन खुली किताब है, किताब देखते रहो।।

                               ✍ डॉ पवन मिश्र

*एहतराम इस्लाम साहब का मिसरा

सराब= मृगतृष्णा
फ़लक= आसमान
माहताब= चंद्रमा