Sunday 16 February 2020

ग़ज़ल- समंदर चीरने वाला ही तो साहिल से मिलता है


बताओ क्या कोई काहिल कभी मंजिल से मिलता है ?
समंदर चीरने वाला ही तो साहिल से मिलता है।।

यहां बेताबियां बेदारगी बेशक मिले लेकिन।
मुहब्बत में सुकूं यारों बड़ी मुश्किल से मिलता है।।

नहीं रहता है अब वो मुत्मइन मेरे नजरिये से।
वो शायद आजकल मेरे किसी मुकबिल से मिलता है।।

निगाहें उसकी कातिल हैं सबब हमको पता लेकिन।
करें क्या हम सुकूं हमको उसी कातिल से मिलता है।।

दिखावा कर नहीं पाता नवाज़िश का किसी से भी।
पवन जिससे भी मिलता है हमेशा दिल से मिलता है।।

                                            ✍️ डॉ पवन मिश्र

मुत्मइन= सहमत
मुकबिल= विरोधी

ग़ज़ल- सत्य हूँ और आंख का पानी हूँ मैं


सत्य हूँ और आँख का पानी हूँ मैं।
यूँ समझिये फ़ैज़-ए-रूहानी हूँ मैं।।

ब्रह्म हूँ, कैसे मिटा पाओगे तुम।
आत्म हूँ मैं लफ़्ज लाफ़ानी हूँ मैं।।

इस अधूरे इश्क़ की मैं क्या कहूँ ?
वो शनावर और तुग़्यानी हूँ मैं।।

ज़िद पे आया तो बहा ले जाऊंगा।
आँख में ठहरा हुआ पानी हूँ मैं।।

पेचोख़म कैसे भी हों, पर्वा नहीं।
बचपना हूँ एक नादानी हूँ मैं।।

क्यूं अँधेरों में पुकारूँ हर दफा।
उस खुदा का ही तो ताबानी हूँ मैं।।

ज़र-ज़मीं कुछ भी न मैं ले जाऊंगा।
बे-सरो-सामान सैलानी हूँ मैं।।

                  ✍️ डॉ पवन मिश्र

फ़ैज़-ए-रूहानी= आध्यात्म से मिलने वाला लाभ
लाफ़ानी= अमर, शाश्वत
शनावर= कुशल तैराक
तुग़्यानी= बाढ़, सैलाब
पेचोख़म= जटिलता
ताबानी= नूर, प्रकाश
सैलानी= यात्री