Saturday 23 September 2017

ग़ज़ल- मुझे मालूम न था


उनकी झूठी है अदावत मुझे मालूम न था।
यूँ भी होती है सियासत मुझे मालूम न था।।

मेरे हुजरे में चले आये हिजाबों के बिना।
*यूँ भी आती है कयामत मुझे मालूम न था*।।

बेजुबाँ दिल भी लगा चीखने उनकी ख़ातिर।
इसको कहते हैं मुहब्बत मुझे मालूम न था।।

अब तलक दिल की ही सुनता मैं रहा लेकिन।
वो भी कर देगा बगावत मुझे मालूम न था।।

छोड़ जाएंगे अकेला युँ जमाने में मुझे।
होगी इस दर्जा शिकायत मुझे मालूम न था।।
                             ✍ डॉ पवन मिश्र

हुजरा= व्यक्तिगत कक्ष
हिजाब= नकाब, पर्दा

**फ़िराक गोरखपुरी साहब का मिसरा

ग़ज़ल- सजा ये है दिवाने की


नहीं पर्वा कभी की यार हमने इस जमाने की।
मुहब्बत हो गयी तुमसे सजा ये है दिवाने की।।

मुबारक हो तुम्हे मजबूरियां जो भी तुम्हारी हैं।
चले जाओ जरूरत क्या तुम्हे बातें बनाने की।।

बिखरना ख़्वाब का हमने चलो तकदीर कह डाला।
करेंगे आज से कोशिश तुम्हे दिल से भुलाने की।।

तुम्हे हक है कुरेदो लाख चाहें जख़्म तुम मेरे।
*मुझे आदत नहीं है दूसरों का दिल दुखाने की*।।

अभी तो रो रहा हूँ मैं, जनाजे में तो आओगे ?
वहीं बारी तुम्हारी आएगी आँसू बहाने की।।

पवन का इश्क़ तुमको बेवफ़ा कह पायेगा कैसे ?
मिलें खुशियां सभी तुमको दुआ है ये दिवाने की।।

                             ✍ डॉ पवन मिश्र

**मनीष सिंह 'आवारा' जी का मिसरा

Sunday 17 September 2017

ग़ज़ल- मुहब्बत का इरादा क्यूँ करें हम


वही गलती दुबारा क्यूँ करें हम।
मुहब्बत का इरादा क्यूँ करें हम।।

जिन्हें पर्वा नहीं कोई हमारी।
उन्हें आख़िर पुकारा क्यूँ करें हम।।

यकीं हो गर तुम्हे हमपे तो आओ।
वफ़ादारी का दावा क्यूँ करें हम**।।

तेरी तस्वीर रख ली है रहल पे।
मुहब्बत इससे ज़्यादा क्यूँ करें हम।।

नहीं दिल से अगर उठती सदायें।
नवाज़िश का दिखावा क्यूँ करें हम।।

कज़ा के सामने देगी दगा वो।
भरोसा जिंदगी का क्यूँ करें हम।।

                    ✍ डॉ पवन मिश्र

रहल= लकड़ी का आधार जिसपर रखकर धर्मग्रन्थ पढ़ते हैं
सदायें= आवाजें
नवाज़िश= मेहरबानी, दया
कज़ा= मौत
**जॉन औलिया साहब का मिसरा

Friday 1 September 2017

अतुकान्त- स्वयम्भू जगदीश


हे मनुपुत्र !
माना तुम समर्थ हो,
अति समर्थ
पौध रोपी है तुमने
झाड़-झंखाड़ भी उगाए
नरमुण्ड एकत्र कर
भीड़ को जन्मा है तुमने
जयकारों से गुंजित हैं दिशाएं
आकाश भी, वाणी भी
स्वयं को बताने लगे जगदीश
ऊँची शिला पर बैठ
देने लगे ज्ञान
नीचे बैठी भीड़ को
मैं-मैं करते करते
भूल गए हमें
बेशक
उस भीड़ में मैं भी हूँ
लेकिन हे स्वयम्भू जगदीश
तुम्हारी भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ।
क्या हुआ ? चुभ गया तुम्हे ?
लेकिन क्यों ?
ऊँची शिला पर
बैठे हो बस
जगदीश नहीं हो तुम
मनुपुत्र हो, मनुपुत्र।

✍ डॉ पवन मिश्र

मुक्तक


परशुराम की पुण्य धरा को वंदन है
हे वीर प्रसूता गाजीपुर अभिनन्दन है
सौ सौ बार लगा लूँ इसको माथे पर
अब्दुल हमीद की यह मिट्टी तो चंदन है

जाने कहाँ से वो मेरे करीब आ गया
लेकर हज़ार ख़्वाब वो हबीब आ गया
मंज़िल भी दिख रही थी राहे इश्क़ में मगर
कम्बख़्त बीच में मेरा नसीब आ गया

कली कमसिन को काँटों से बचा लाई,
वो मुझको हर अँधेरों से बचा लाई।
समंदर तो बहुत मगरूर था लेकिन,
मेरी माँ हर थपेड़ों से बचा लाई।।

✍डॉ पवन मिश्र