Friday 1 September 2017

मुक्तक


परशुराम की पुण्य धरा को वंदन है
हे वीर प्रसूता गाजीपुर अभिनन्दन है
सौ सौ बार लगा लूँ इसको माथे पर
अब्दुल हमीद की यह मिट्टी तो चंदन है

जाने कहाँ से वो मेरे करीब आ गया
लेकर हज़ार ख़्वाब वो हबीब आ गया
मंज़िल भी दिख रही थी राहे इश्क़ में मगर
कम्बख़्त बीच में मेरा नसीब आ गया

कली कमसिन को काँटों से बचा लाई,
वो मुझको हर अँधेरों से बचा लाई।
समंदर तो बहुत मगरूर था लेकिन,
मेरी माँ हर थपेड़ों से बचा लाई।।

✍डॉ पवन मिश्र

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