Sunday 18 December 2022

ग़ज़ल- मेरी आँखों मे एक चेहरा है

 


मेरी आँखों में एक चेहरा है

जिसके होने से मेरा होना है


बन्दगी बस उसी की करता हूँ

दिल में मेरे फ़क़त वो रहता है


उन समंदर सी गहरी आंखों में

मुझको जाना है डूब जाना है


पूरा चेहरा अभी पढ़ें कैसे

दिल अभी एक तिल पे अटका है


क्यूँ निहारूँ फ़लक मैं रातों में

मेरे हुजरे में चांद रक्खा है


कौन किसमें समायेगा बोलो

एक दरिया है एक सहरा है


क्यूं ज़रीआ बने ज़माना ये

मुझसे आकर कहो जो कहना है


आज उसने छुड़ा लिया दामन

आज दिल ज़ार ज़ार रोया है


ज़ख़्म देकर नमक भी है देती

यार मेरे यही तो दुनिया है


साथ देती नहीं कभी क़िस्मत

काहिलों का यही तो रोना है


बाद उसके पवन तुम्हारा दिल

उसकी यादों का गोशवारा है


✍️ डॉ पवन मिश्र


सहरा- मरुस्थल

हुजरा- कमरा, कोठरी

गोशवारा- एकांत स्थान



Saturday 17 December 2022

गीत- हे प्रिये! जबसे मिले हो

 गीत

हे प्रिये! जबसे मिले हो मिट गया संत्रास हिय का।

क्या कहूँ निर्जीव तन में श्वास कितनी भर गए हो।।

मौन अधरों पर रखा है,

किंतु धड़कन गा रही है।

गन्ध कैसी दे गए जो,

हिय कुसुम महका रही है।

स्वाति बूंदें झर रहीं अब,

सीप मोती भर रहीं अब।

इक छुवन से इस हृदय के तार झंकृत कर गए हो।

क्या कहूँ निर्जीव तन में श्वास कितनी भर गए हो।।

हे प्रिये! जबसे मिले हो....

हार बाहों का पहनकर,

रात भी इठला रही है।

और बस अवगुम्फनों में,

दास बन मुस्का रही है।

शशि किरन का रूप धरकर,

इस चकोरे पर हुलसकर।

स्वप्न में आ एक चुम्बन भाल पर जो धर गए हो।

क्या कहूँ निर्जीव तन में श्वास कितनी भर गए हो।।

हे प्रिये! जबसे मिले हो....

चाहती है प्रीति मेरी,

तुम इसे अपना बना लो।

डोलती है नाव डगमग,

अब इसे तुम ही सँभालो।

ले चलो मुझको किनारे,

दूर तक अपने सहारे।

या कि कह दो इस जहां के बंधनों से डर गए हो।

क्या कहूँ निर्जीव तन में श्वास कितनी भर गए हो।।

हे प्रिये! जबसे मिले हो....


✍️ डॉ पवन मिश्र


Sunday 4 December 2022

नवगीत- जीवन जैसे जलता मरुथल

जीवन जैसे जलता मरुथल,

कैसे तपन मिटाएं।

किसके कांधे सर रख दें हम,

किसको पीर सुनाएं।।


बदल गया परिवेश विश्व का,

बदल गयी हर काया।

पीछे-पीछे भाग रहे सब,

आगे-आगे माया।

अर्थमोह की बंजर भू पर,

कैसे पुष्प खिलाएं।

किसके कांधे सर रख दें हम,

किसको पीर सुनाएं।।


मूल लक्ष्य जीवन का भूले,

भंगुर धन ही सपना।

अपनी-अपनी ढपली सबकी,

गाना अपना-अपना।

पाषाणों के इस जंगल में,

नीर कहाँ हम पाएं।

किसके कांधे सर रख दे हम,

किसको पीर सुनाएं।।


सम्बन्धों में प्रेम नहीं अब,

मतलब के हैं साथी।

स्वार्थ तैल से ऊर्जा पाकर,

जलती जीवन बाती।

आहत मन की ये सब बातें,

जाकर किसे बताएं।

किसके कांधे सर रख दें हम,

किसको पीर सुनाएं।।


✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 27 November 2022

दोहे- प्रेम

 प्रेम विषय अध्यात्म का, एक अनन्ताकाश।

दैहिक इसमें कुछ नहीं, अंतर्मन की प्यास।१।


प्रेम पुण्य पावन प्रखर, ज्यों गंगा की धार।

क्षुद्र स्वार्थ हित दुष्टजन, करते बस व्यभिचार।२।


लिए छलावा प्रेम का, करते लव जेहाद।

नहीं धरा पर और हैं, इनके सम जल्लाद।३।


सूटकेस का कभी तो, फ्रिज का कभी प्रयोग।

तथाकथित प्रेमी फिरें, मन में लेकर रोग।४।


श्रद्धा मन में थी नहीं, कैसे रखता मान।

पैंतिस टुकड़ों में मिली, एक बाप की जान।५।


प्रतिक्षण होता जा रहा, कब तक देखें ह्रास।

नैतिक मूल्यों के लिये, मिलकर करें प्रयास।६।


सम्बन्धों में प्रेम हो, सबका हो सम्मान।

सुता पुत्र को दीजिये, नैतिकता का ज्ञान।७।


                              ✍️ डॉ पवन मिश्र








Saturday 19 November 2022

ग़ज़ल- अलहदा भी था लेकिन


वो सबके साथ भी था अलहदा भी था लेकिन

भला भी था वो ज़रा सा बुरा भी था लेकिन


नहीं भले वो कभी खुल के कह सका मुझसे

दबी-दबी सी ज़बाँ में कहा भी था लेकिन


रिवाज़ो रस्म की ख़ातिर जुदा हुआ मुझसे

विदा के वक्त वो कुछ पल रुका भी था लेकिन


शब-ए-फ़िराक़ थी कुछ कह नहीं सके दोनों

शब-ए-विसाल का चर्चा हुआ भी था लेकिन


उसे लगा कि नहीं दरमियां बचा अब कुछ

सुलगती ऑंखों में पानी बचा भी था लेकिन


भले ही आज न आये वो दीद में मेरी

इसी जगह वो मुझे कल दिखा भी था लेकिन


नहीं मिला जो मुझे साथ उम्र भर तो क्या

वो कल तलक मेरा हमदम रहा भी था लेकिन

                                ✍️ डॉ पवन मिश्र



शब-ए-फ़िराक़- जुदाई की रात

शब-ए-विसाल- मिलन की रात


Saturday 15 October 2022

स्नेह सम्मिलन-४

 स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।।


वर्षों की तड़पन है प्यारों खूब जमेगा रंग,

बाबा भोले की नगरी में होना है हुड़दंग।

कतकी मेला के पहले ही मिलना है दीवानों,

शमा जली है स्नेह मिलन की आ जाओ परवानों।।

जल्दी से अब टिकट करा लो हो न जाये देर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।।


पहली बार किशनपुर वाले भूल गए क्या वो पल,

एकडला के गन्नों का रस वो यमुना का कल-कल।

याद नहीं क्या प्रथम मिलन की नेह भरी वो बतिया,

जौ मकई की सोंधी रोटी वो अमरूद की बगिया।।

वाणी के उस प्रथम मंच से खूब दहाड़े शेर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।।


दूजी बार गए ददरा अब्दुल हमीद के गांव,

अबकी बार थी अमराई और उसकी ठंडी छाँव।

चटक धूप में सभी मगन थे नेह की चादर ताने,

ढोल मंजीरे से उल्लासित कजरी के दीवाने।।

उमड़ घुमड़ कर वही भाव फिर हमें रहा है टेर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।।


उसके बाद सभी वाणीजन पहुंचे थे इक मरुथर,

कुछ ने पकड़ी ट्रेन हावड़ा कुछ ने थामी मरुधर।

ग्राम उदासर ने अद्भुत सत्कार किया था सबका,

राजस्थानी भोजन था और था वाणी का तबका।।

अद्भुत मंच सजा था उस दिन नगर था बीकानेर,

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।।

स्नेह सम्मिलन तुम्हे पुकारे, रहा है काशी हेर।।


                                  ✍ डॉ पवन मिश्र


Sunday 14 August 2022

गीत- यह भारतवर्ष महान मेरा

 यह भारतवर्ष महान मेरा,

अनमोल छटा ज्यों इंद्रधनुष।

भूखण्ड नहीं यह मात्र कोई,

है देवतुल्य यह राष्ट्रपुरुष।।


मस्तक हिम शिखरों का आलय,

स्वर्गानुभूति सा मेघालय।

कटि के जंगल हैं हरे-भरे,

पद के नीचे सागर लहरे।

पर्वत श्रेणी नदियों का जाल,

गंगा यमुना सरयू विशाल।

मैदानी हरित प्रदेश यहाँ,

अनगिन भाषा और भेष यहाँ।

तिनके तिनके में ब्रह्म अंश,

वेदों की गति वंशानुवंश।

सभ्यता सनातन चिर महान,

प्रस्तर-प्रस्तर देता प्रमान।

सम्यक विचार सम्यक सुदृष्टि,

माने कुटुम्ब हम सकल सृष्टि।

शिव-शिखा छोड़कर भारत में,

सुरसरि धोती हर पाप कलुष।

है देवतुल्य यह राष्ट्रपुरुष।।


इसकी गोदी में राम पले,

घुटनों के बल श्रीकृष्ण चले।

यह तप माता अनसुइया का,

गार्गी का सीता मइया का।

गौतम नानक की बानी है,

यह हरिश्चन्द्र सा दानी है।

मानस गीता रामायण है,

यह स्वयं रूप नारायण है।

इसकी पद रज को पाने को,

सृष्टा भी आतुर आने को।

वामन वराह और परशुराम,

धन्वन्तरि का यह पुण्य धाम।

हो भैरव या वृषभावतार,

दुर्वासा या अंजनि कुमार।

इस देवभूमि पर कोटि देव,

अवतरित हुए धर रूप मनुष।

है देवतुल्य यह राष्ट्रपुरुष।।


यह वीर शिवा का शौर्य गान,

राणाप्रताप का स्वाभिमान।

राणा सांगा के घावों में,

कुम्भा के अतुलित भावों में।

आल्हा-ऊदल की प्रखर शक्ति,

रानी लक्ष्मी की देश भक्ति।

जल गई आन हित धू-धू कर,

ये वीर पद्मिनी का जौहर।

यह विष्णुगुप्त की शिक्षा में,

सागर सी धैर्य परीक्षा में।

अशफ़ाक भगत सावरकर हों,

बिस्मिल सुभाष या शेखर हों।

गांधी पटेल गोखले तिलक,

जो मृत्यु बाद भी रहे चमक।

सुंदर इस भारत बगिया में,

अनगिन ऐसे हैं वीर तरुश।

है देवतुल्य यह राष्ट्रपुरुष।।


          ✍️ डॉ पवन मिश्र

Thursday 3 February 2022

ग़ज़ल- ख़ुदा जाने

 

२१२२ १२१२ २२
क्यूं हुआ हादसा, ख़ुदा जाने
चाहता क्या ख़ुदा, ख़ुदा जाने

एक चेहरे पे रुक गईं नजरें
इश्क़ है या ख़ता, ख़ुदा जाने

चल दिये राह-ए-इश्क़ पर लेकिन
देखें होता है क्या, ख़ुदा जाने

कश्तियाँ बह रहीं अकेले ही
है कहाँ नाख़ुदा, ख़ुदा जाने

हिज़्र के ज़ख़्म कब तलक पालूं
कब मिलेगी शिफ़ा, ख़ुदा जाने

               ✍️ डॉ पवन मिश्र