Sunday 11 November 2018

ग़ज़ल- शाइरी कब तक



जमाने की रवायत में मेरी आवारगी कब तक।
ये फक्कड़पन रहे ,देखो रहे, ये शाइरी कब तक।।

तेरे दीदार को तरसी हैं आंखें रात भर मेरी।
मिलन की शबनमी बूँदें लिये तू आएगी कब तक।।

ज़मीं ज़र दे दिया फिर भी पड़ोसी वो नहीं सुधरा।
बहुत कमज़र्फ़ है देखो निभाये दुश्मनी कब तक।।

चुनावी साल में होते तमाशे ही तमाशे हैं।
चलेगी मुल्क में मेरे ख़ुदा ये मसखरी कब तक।।

दुशासन हँस रहा देखो, झपट कर थाम लो गर्दन।
कि कान्हा के भरोसे ही रहोगी द्रौपदी कब तक।।

जलाकर खुद को मैंने रौशनी देने की ठानी है।
कि अब है देखना आखिर रहेगी तीरगी कब तक।।

                                   ✍ *डॉ पवन मिश्र*

Saturday 3 November 2018

कुण्डलिया- पीत पत्रकारिता



डाका, रेप, गिरहकटी, संसद का व्यभिचार।
इन सबसे ही आजकल, भरा रहे अख़बार।।
भरा रहे अखबार, दिखाए हमको दुनिया।
नहीं सुरक्षित आज, बिचारे मुन्ना-मुनिया।।
अखबारों का किन्तु, अर्थ ही असली आका।
कीमत ले हर बार, डालते सच पे डाका।१।

भारत के गणतंत्र के, ये हैं चौथे खम्भ।
लेकिन इनमें भर गया, जाने कैसा दम्भ।।
जाने कैसा दम्भ, समझते खुद को ज्ञानी।
अधजल गगरी लाय, छलकता जाए पानी।।
कहे पवन ये धूर्त, झूठ की लिखें इबारत।
तार तार सम्मान, ज़ख्म ढोता है भारत।२।

                               डॉ पवन मिश्र