Sunday 23 July 2023

गीत- सावन बीता जाए

गीत- सावन बीता जाए

सावन बीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए

तपता जेठ जलाता था तन
विरह अगन झुलसाती थी मन
उम्मीदों में दिन काटे थे
गलबहियों में सन्नाटे थे
जेठ बिताया तपते-तपते
आषाढ़ी भी रस्ता तकते
लेकिन अब तो सावन है जी
बरखा भी मनभावन है जी
तपती भू पर भगवन बरसे
मेरे नयना फिर भी तरसे
बोलो साजन कब आओगे
जीवन रीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए

जब से सावन ऋतु आई है
सारी धरती हरियाई है
महक रही डारी-डारी
फूल रही हैं सब फुलवारी
लेकिन मेरा आंगन सूना
पिय के बिन यह सावन सूना
सूना घर है सेज है सूनी
तकिया ही बस है बातूनी
मन ही मन हम रो लेते हैं
सुधियों में ही खो लेते हैं
बेकल हिरदय जोहे तुमको
आंसू पीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए
पिया बिन
जीवन रीता जाए
सखी री,
सावन बीता जाए

✍️ डॉ पवन मिश्र

Saturday 22 July 2023

निबंध- सांस्कृतिक राष्ट्रवाद- चुनौतियां और हमारी भूमिका

 सांस्कृतिक राष्ट्रवाद- चुनौतियां और हमारी भूमिका


राष्ट्र एक अमूर्त संकल्पना है, जो किसी क्षेत्र के विभिन्न समूहों को साझे लक्ष्यों, विचारधारा व परम्परा से जोड़ती है। किसी राष्ट्र का शक्तिशाली या कमजोर होना इस बात पर निर्भर करता है कि वहां के निवासी अपने राष्ट्रीय हितों के लिये कितना समर्पित हैं? रंग, जाति, क्षेत्र, परम्परा और धर्म से विभेदित समाज को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का मूल मंत्र है 'राष्ट्रवाद'।

            यह विशुद्ध रूप से एक भाव है जो व्यक्ति के भीतर राष्ट्र की भावना को बलवती करता है और इस अनुभूति का सर्वोत्तम रूप है, 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'। वैसे तो राष्ट्र को जोड़ने वाले कई तत्व हो सकते हैं- आर्थिक हित, राजनीतिक विचारधारा, विभिन्न सामाजिक एवम् सांस्कृतिक विशेषताएं किंतु इनमें से संस्कृति सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी होती है। संस्कृति, सभ्यता को प्रकाशित करने वाला एक तत्व है। यह शारीरिक एवम् मानसिक अभिवृत्तियों को सशक्त करने का माध्यम है। संस्कृति एक क्षेत्र को दूसरे क्षेत्र से, एक समूह से दूसरे समूह को, एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से उनकी व्यक्तिनिष्ठता को बनाये रखते हुए सर्वनिष्ठ हितों की प्राप्ति हेतु उन्हें मज़बूती से जोड़ती है और यह जुड़ाव ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति का आधार है। जिसमें राष्ट्र को जाति, धर्म, क्षेत्र, परम्परा आदि के अलगाव की बजाय एक साझी संस्कृति के रूप में निरूपित किया जाता है, चित्रित किया जाता है। इसमें किसी भी राष्ट्र की विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज, परंपराओं आदि का रक्षण करते हुए उन्हें एकीकृत रूप से पुष्ट होते हुए देखा जाता है।

 सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक ऐसी विचारधारा है जो व्यक्तियों के सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व देती है तथा यह किसी भी राष्ट्र की अभिवृद्धि का एक प्रमुख कारक है। दूसरे अर्थों में यह समझा जा सकता है कि यह हमारे शरीर के मस्तिष्क की तरह ही होता है जो विभिन्न अंगों को जोड़कर शरीर को एक इकाई के रूप में संगठित रखने का कार्य करता है। विविधता राष्ट्र का आवश्यक अंग है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उसके वासियों को सांस्कृतिक रूप से एकता की अनुभूति कराने का एक सशक्त उपकरण है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद विभिन्न सांस्कृतिक समूहों को संगठित कर राष्ट्र की परिकल्पना को बल प्रदान करता है।

            जब एकीकरण की इस अनुभूति को हम भारत के संदर्भ में देखते हैं तो यह और भी व्यापक हो जाता है। क्योंकि भारत की संस्कृति के मूल में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का भाव है। अतः इसका परिदृश्य वैश्विक हो जाता है। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः' की विचारधारा वाले भारत के संदर्भ में यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पुष्ट कर लिया जाए तो यह मात्र भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व के कल्याण के पथ को प्रशस्त करेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार भी आदर्शतम राष्ट्र की जो परिकल्पना की गई है उस के सारे तत्व भारतीय संस्कृति में अंतर्निहित हैं, सहज उपलब्ध हैं। एक यूरोपियन दार्शनिक हुए हैं सन्नेरात, उनके स्प्ष्ट विचार हैं कि 'भारत के अतिरिक्त पूरे विश्व मे रखा ही क्या है? भारत के बिना यह विश्व मात्र एक ठूँठ है, ठूँठ।' इसीलिये जब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के माध्यम से भारत के सशक्तिकरण की बात करते हैं तो यह आवश्यक है कि हम इसे मात्र अपने तक सीमित करने की बजाय इसकी सार्वभौमिकता पर दृष्टि करें। हमारे वेद 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' की बात करते हैं। हम पूरे विश्व को जातिगत आधार पे ब्राह्मण बनाने की बात नहीं करते, हम सभी को हिन्दू बनाने की बात नहीं करते, हम किसी पंथ या सम्प्रदाय के विस्तारीकरण की बात नहीं करते। वरन हम सभी को श्रेष्ठ बनाने का विचार रखते हैं। हम पूरे विश्व को श्रेष्ठ बनाने की बात करते हैं। क्योंकि जब सभी श्रेष्ठ होंगे तो मार्ग की तुच्छ नकारात्मक चीजें स्वतः धूमिल हो जाएंगी। 

                  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मार्ग में ढेरों चुनौतियां भी हैं। स्प्ष्ट रूप से प्रथमतः जो दिखता है, वह है विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक समूहों में मतभेद और इसका प्रमुख कारण यह है कि सामान्यतः लोग इस सिद्धांत की मूल आत्मा को समझने में ही असफल रहे हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में निश्चित रूप से अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा का भाव है परन्तु दूसरी संस्कृतियों के प्रति इसमें घृणा नहीं है। सामान्यतः लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में अपनी संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों के साथ टकराव के रूप में देखते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि जब दो संस्कृतियां मिलें, दोनों संस्कृतियों के अच्छे मूल्यों को आत्मसात किया जाए और जब ऐसा होगा तो आपसी टकराहट का प्रश्न ही नहीं उठेगा। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बहाने यदि आपसी विद्वेष को बढ़ावा मिल रहा हो तब चुनौती बहुत बड़ी हो जाती है। विशेषकर तब, जब नकारात्मक दृष्टिकोण के साथ किसी पक्ष, किसी विचारधारा के छिद्रान्वेषण में कुछ शक्तियां लगी हों। 

चूंकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, अपनी संस्कृति की बात करता है तो एक और बहुत बड़ी चुनौती परम्परागतता और आधुनिकता के बीच के टकराव की आती है। 

इसके इतर धार्मिक और साम्प्रदायिक मतभेद की चुनौतियों के साथ-साथ राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मार्ग के कुछ और प्रमुख अवरोधक है। 

यह निश्चित मानिए कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही हमारा भविष्य है। इस विचारधारा को पुष्ट करने हेतु हमें ढेरों प्रयास करने होंगे। हमारी भूमिका सदा ही सकारात्मक रहनी चाहिये। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद दर्शन का एक गूढ़ विषय है अतः अपनी संस्कृति के वास्तविक मूल्यों को पहले हमें स्वयं समझना होगा, उपनिषदों के मूल तत्व को आत्मसात करना होगा। हम सभी जानते हैं, 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे'। अतः जिस पथ, जिस विचारधारा के हम समर्थक हैं उसका स्वयं ही अनुसरण करना होगा, उसके मूल विचार को आत्मसात करना होगा। वैश्वीकरण के इस युग में जब बाजारवाद हावी होता जा रहा है, हमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रसार के नए तरीके तलाशने ही होंगे जिनके मूल में समरसता का भाव हो। तब जाकर हम उदात्त भाव से जनमानस में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीज का रोपण कर सकेंगे और इसके लिए आवश्यक यह है कि हम अपनी जड़ों को मजबूत करें। क्योंकि जब जड़ें मजबूत होंगी तभी हम दृढ़ होंगे और स्वयं को स्पष्टतः अभिव्यक्त कर पाएंगे। तब जाकर हम भारत के संदर्भ में 'विश्व गुरु' की जो परिकल्पना है उसे मूर्त रूप दे पाएंगे। अतः हमारी भूमिका इस हेतु और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। हमें हमेशा यह भान रहना चाहिये कि 'वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।'


       शक्ति शौर्य सामर्थ्य का, होगा प्रादुर्भाव।

      जनमानस में जब जगे, राष्ट्रवाद का भाव।।


✍️ डॉ पवन मिश्र

     कानपुर, उ0प्र0

Sunday 16 July 2023

दोहे- राष्ट्र

शक्ति शौर्य सामर्थ्य का, होगा प्रादुर्भाव।
जनमानस में जब जगे, राष्ट्रवाद का भाव।१।

जाति धर्म औ देश से, बड़ा राष्ट्र का रूप।
लेकिन मेढ़क क्या करे, वो जाने बस कूप।२।

राष्ट्र एक संकल्पना, एक प्रबुद्ध विचार।
अंतस के विस्तार से, होगा यह साकार।३।

भौगोलिक सीमा नहीं, नहीं राष्ट्र इक क्षेत्र।
संस्कृति ही तो राष्ट्र है, खोलो अपने नेत्र।४।

पूरी वसुधा एक है, मानवता है धर्म।
सबके सुख की कामना, है भारत का मर्म।५।

✍️ डॉ पवन मिश्र

Sunday 9 July 2023

ग़ज़ल- ईंट-गारा बचा मकानों में

ईंट-गारा बचा मकानों में
और क्या रह गया मकानों में

जबसे बच्चे बड़े हुए तब से
छोटा आंगन हुआ मकानों में

सबने ऊंची बना लीं दीवारें
कैसे आये सदा मकानों में

खुद के भीतर न झांक पाए और
ढूंढते हैं ख़ुदा मकानों में

उनको फुर्सत न थी ज़माने से
मैं भी उलझा रहा मकानों में

सारे रिश्ते गँवा के जाना है
कुछ नहीं है रखा मकानों में

कुछ दरिंदों ने नोंच ली कलियां
देश सोता रहा मकानों में

✍️ डॉ पवन मिश्र