Saturday 19 November 2022

ग़ज़ल- अलहदा भी था लेकिन


वो सबके साथ भी था अलहदा भी था लेकिन

भला भी था वो ज़रा सा बुरा भी था लेकिन


नहीं भले वो कभी खुल के कह सका मुझसे

दबी-दबी सी ज़बाँ में कहा भी था लेकिन


रिवाज़ो रस्म की ख़ातिर जुदा हुआ मुझसे

विदा के वक्त वो कुछ पल रुका भी था लेकिन


शब-ए-फ़िराक़ थी कुछ कह नहीं सके दोनों

शब-ए-विसाल का चर्चा हुआ भी था लेकिन


उसे लगा कि नहीं दरमियां बचा अब कुछ

सुलगती ऑंखों में पानी बचा भी था लेकिन


भले ही आज न आये वो दीद में मेरी

इसी जगह वो मुझे कल दिखा भी था लेकिन


नहीं मिला जो मुझे साथ उम्र भर तो क्या

वो कल तलक मेरा हमदम रहा भी था लेकिन

                                ✍️ डॉ पवन मिश्र



शब-ए-फ़िराक़- जुदाई की रात

शब-ए-विसाल- मिलन की रात


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